________________
के महा-निर्देशक/कुलपति रह चुके हैं। स्थापत्य-मूर्ति-चित्रकला और पुरातत्त्व के विशिष्ट विद्वान हैं।
इन्होंने ही इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर मुझे अनुग्रहीत किया है, अतः मैं इनका हृदय से आभार स्वीकार करता हूँ।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि प्राकृत भारती के संस्थापक श्री डी०आर० मेहता ने इसकी उपयोगिता समझ कर प्राकृत भारती की प्रकाशन योजना में इसका प्रकाशन स्वीकार किया। एम०एस०पी०एस० जी० चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री मंजुल जैन ने प्राकृत भारती के साथ संयुक्त प्रकाशन हेतु उदारता प्रदर्शित की। अतः इन दोनों संस्थानों के प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
मेरे लेखन, संशोधन, सम्पादन आदि कार्यों में आयुष्मान मंजुल जैन और उसकी धर्मपत्नी अखण्ड सौभाग्यवती नीलम जैन एवं समस्त परिवार का अविच्छिन्न रूप से सहयोग रहा है। अतः इन सब के प्रति मेरी हार्दिक शुभाशीष।
अन्त में मेरे परमाराध्य खरतरगच्छ दिवाकर पूज्य आचार्यदेव स्वर्गीय श्री जिन मणिसागरसूरि जी महाराज की दिव्याशीष का ही यह सुफल है कि इस पुस्तक का कार्य सम्पन्न हो सका।
- म० विनयसागर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org