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First Edition : 750 Copies
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Phaltan Galli, Sholapur ( India )
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जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय
सोलापूर निवासी ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंदजी दोशी कई वर्षों से संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगा रहे थे । सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेष रूप से धर्म और समाजकी उन्नति के कार्य करें । तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे साक्षात् और लिखित सम्मतियां इस बातकी संग्रह की कि कौनसे कार्यमें संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्म काल में ब्रह्मचारीजीने तीर्थक्षेत्र गजपंथा ( नासिक ) के शीतल वातावरण में विद्वानोंकी समाज एकत्र की और ऊहापोहपूर्वक निर्णय के लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वत्सम्मेलन के फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगों के संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतुसे 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की और उसके लिए ३००००, तीस हजारके दानकीपणा कर दी। उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढ़ती गई, और सन् १९४४ में उन्होंने लगभग २,००,०००, दो लाखकी अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्ट रूपसे अर्पण कर दी । इस तरह आपने अपने सर्वस्व का त्याग कर दि. १६-१-५७ को अत्यन्त सावधानी और समाधान से समाधिमरण की आराधना की । इसी संघ के अंतर्गत ' जीवराज जैन ग्रंथमाला ' का संचालन हो रहा हैं । प्रस्तुत ग्रंथ इसी ग्रंथमालाका अठारहवाँ पुष्प है ।
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