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दिये हैं तथा पालि भाषा के नियमों को दिखाने के लिए सर्वत्र स्व० आचार्य श्री विधुशेखर भट्टाचार्यजी रचित पालिप्रकाश का ठीक ठीक उपयोग किया है ।
प्रस्तुत हिन्दी संस्करण में भी प्राकृत, पालि, शौरसनी, मागधी, पैशाची तथा अपभ्रंश के पूरे नियम बताकर संस्कृत के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विशेष परामर्श किया है और वेदों की भाषा, प्राकृतभाषा तथा संस्कृत भाषा - इन तिनों भाषाओं का शब्द समूह कितना अधिक समान है इस बात को यथास्थान दिखाने का भरसक प्रयास किया है तथा पृ० ११० से १३७ तक का जो खास संदर्भ दिया है वह भी उक्त तीनों भाषाओं की पारस्परिक सूचक है ।
समानता का ही पूरा
गुजराती प्राकृतमार्गोपदेशिका का यह हिन्दी संस्करण कैसे हुआ ? यह इतिहास भी रोचक होने से संक्षेप में निर्देश कर देता हूँ:
करीब छः वर्ष पहले पं० साध्वी श्री मृगावतीजी (जो अभी बंबई में विशिष्ट व्याख्यात्री के रूप में सुविश्रुत है ) मेरे पास ही पढ़ने के लिए दिल्ली से अमदाबाद में आई । वह और उनकी शिष्या श्री सुत्रताजी मेरे पास करीब दोअढाई वर्ष पढ़ती रहीं । जैनागम, तर्क के उपरांत प्राकृत व्याकरण भी पढ़ने का प्रसंग आया था । अमदाबाद में उनकी ( श्री मृगावतीजी की ) जन्म-माता तथा गुरुणी श्री शीलवतीजी तथा सहधर्मिणी साध्वी सुज्येष्ठाजी भी साथ में आई थीं । ये दोनों सरल प्रकृति तथा धर्म विचार की बड़ी जिज्ञासु रही । अवसर पाकर मैंने श्री मृगावतीजी से निवेदन किया कि गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका का हिन्दी अनुवाद श्री सुव्रतानी कर देवें यही मेरी नम्र प्रार्थना है, सौभाग्यवश मेरी प्रार्थना उन्होंने स्वीकृत कर ली और यह हिन्दी अनुवाद तैयार भी हो गया ।
अनुवाद तो हो गया पर प्रकाशक भी मिले तभी अनुवाद का साफल्य हो, दिल्लीवाले मोतीलाल बनारसीदास एक सुविख्यात पुस्तक प्रकाशक है और खास करके प्राच्यविद्या के ग्रन्थों के प्रकाशक हैं । वे श्री मृगावतीजी के गुणानुरागी श्रावक हैं । मेरा प्रथम परिचय उनसे वहीं पर श्रीमृगावतीजी के निमित्त से हुआ और मेरा भी उनसे संपर्क हो गया, उक्त फर्म के प्रतिनिधि भाई श्री सुन्दरलालजी को मैंने सूचित किया कि इस हिन्दी प्राकृतमार्गोपदेशिका को आप क्यों
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