Book Title: Prakritmargopadeshika
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 12
________________ [६] बनाई जाय ? इस काम को मैंने हाथ पर लिया और तीन-चार महिने में गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका की एक पांडुलिपि तैयार कर दी। फिर पाठशाला के व्यवस्थापकों ने उस पांडुलिपि को प्रकाश में लाने का निर्णय किया तब मैंने उसको संशोधित करके समुचित रूप से ठीक-ठीक तैयार कर दी, बनारस से प्रकाशित प्राकृत मागोंपदेशिका के संस्करण में ही मैंने अन्त में सूचित किया है कि विक्रम संवत् १६६७, ज्येष्ठ मास, पूर्णिमा, शुक्रवार के दिन यह पुस्तक संपन्न हो गया । इस प्रकाशन की प्रस्तावना में भी वीर संवत् २४३७ मैंने लिखा है अतः आज से करीब ५६-५७ वर्ष पहले यह प्रथम प्रकाशन हुआ। ___प्राकृत भाषा को गुजराती भाषा द्वारा सीखने का सबसे यह प्रथम साधन तैयार कर सका इस हेतु मुझे प्रसन्नता हुई थी। यह प्रथम प्रकाशन मेरी विद्यार्थी अवस्था की कृति है और सबसे प्रथम मौलिक कृति है। इसमें कहीं भी संस्कृत भाषा का आश्रय नहीं लिया गया था। इसी प्रकाशन की दूसरी आवृत्ति यशोविजय जैन ग्रंथमाला के व्यवस्थापकों ने की है ऐसा मुझे स्मरण है। प्रथम और दूसरे प्रकाशन में कोई भेद नहीं है। गुजरात देश की जैन पाठशालाओं में इसका उपयोग होता है तथा कई साधु-साध्वी भी इसे पढ़ते रहे । बाद में जब मैंने न्यायतीर्थ और व्याकरणतीर्थ परीक्षा पास की तथा पालि भाषा में भी पंडित की परीक्षा लंका ( कोलंबो ) जाकर लंका के विद्योदय कालेज से पास की और संशोधन-संपादन इत्यादि व्यावसायिक प्रवृत्ति में लगा तब गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका का नया संस्करण करने का प्रयत्न किया। उसमें संस्कृत भाषा का तुलनात्मक दृष्टि से पूरा उपयोग किया और नये संस्करणों में उत्तरोत्तर विशेष-विशेष परिवर्तन करता गया। गुजराती प्राकृत मार्गोपदेशिका के कुल पांच संस्करण आज तक प्रकाशित हुए हैं। ये सब संस्करण अहमदाबाद के गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय के मालिकों और मेरे मित्र स्व० श्री शंभूलाल भाई तथा उनके बंधु स्व० श्री गोविंदलाल भाई ने किये हैं, उसमें संस्कृत भाषा के उपयोग के उपरांत पालि भाषा के तथा शौरसेनी, मागधी वगैरह प्राचीन प्राकृत भाषा के नियमों का भी तुलनात्मक दृष्टि से यथास्थान निर्देश किया है तथा आचार्य हेमचंद्र के व्याकरण के सूत्रांक भी नियमों को समझने के लिए टिप्पण में दे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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