Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 17
________________ R4 अंगविद्या, तिथिप्रकीर्णक, पिण्डविशुद्धि, सारावली, पर्यन्ताराधना, जीवविभक्ति, कवच प्रकरण, योनिप्राभूत, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना। 63-83 ग्यारह नियुक्ति-(भद्राबाहुकृत) आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययन नि., आचारांग नि.,सूत्रकृतांग नि.,सूर्यप्रज्ञप्ति नि. (अनुपलब्ध), बृहत्कल्प नि., व्यवहार नि., दशाश्रुतस्कंध नि. ऋषिभाषित नि., (अनुपलब्ध), संसक्त नि.। विशेषावश्यकभाष्यं। ये 84 आगम ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। आगमों का रचना काल सामान्यतया आगम साहित्य में अंग आगमो को गणधरकृत और अंगबाह्य ग्रंथों को आचार्यकृत माना जाता है, किन्तु बौद्धिक ईमानदारी से विचार करने पर उपलब्ध सभी अंग आगम भी किन्हीं एक गणधर की या गणधरो के समूह की रचना हो ऐसा नहीं माना जा सकता है। क्योंकि अंग आगमों की विषयवस्तु उनके ही अंत: साक्ष्यों के आधार पर पर्याप्त रूप से बदल गई है। प्रथमत: आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कुछ परवर्तीकालीन है। उसके प्रथम श्रुतस्कंध की मुख्य मुख्य बातों को छोडक़र उनमें भी कालक्रम में कुछ बातें डाल दी गई है। यद्यपि भगवतीसूत्र को भगवान महावीर और गौतम के बीच संवाद रूप माना जता है, किन्तु इसमें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि के जो निर्देश उपलब्ध है, वे यह तो अवश्य बताते हैं, कि बलभी की वाचना के समय इसे न केवल लिपिबद्ध किया गया, अपितु इसकी सामग्री को व्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा महावीर द्वारा कथित दृष्टान्तों एवं कथाओं के संकलन रूप है। भाषिक परिवर्तन के बावजूद भी यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में बहुत कुछ सुरक्षित रहा है। उपासकदशा की भी यही स्थिति है। किन्तु अन्तकृत्दशा की विषयवस्तु पर्याप्त रूप से परिवर्तित और परिवर्धित हुई है। उसमें स्थानांग के उल्लेखानुसार 10 अध्ययन थे, जबकि आज 8 वर्ग 10 अध्ययन है, यही स्थिति अनुत्तरोपपातिक और विपाकसूत्र की भी मानी ज सकती है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु तो पूर्णत: दो बार बदल चुकी है। विपाकसूत्र में आज [13]

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