Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 133
________________ जयन्तविजय, नरनागयणानन्द, मुनिसुव्रतकाव्य, श्रेणिकचरित, शान्तिनाथचरित, जयोदय महाकाव्य, बालभारत, लघुकाव्य, श्री धरचरितमहाकाव्य, जैनकुमारसंभव, कादम्बरीमण्डन, चन्द्रविजयप्रबंध, काव्यमण्डन आदि। संस्कृत भाषा में निबध्द जैन कथा साहित्य के ग्रन्थ जैन आचार्यो ने धार्मिक एवं नैतिक आचार-नियमों एवं उपदेशो को लेकर अनेक कथाओं एवं कथाग्रन्थों की रचना की है। पूर्वाचार्यो द्वारा रचित ग्रन्थों की टीका, वृत्ति आदि मैं उन कथाओं का समाहित किया गया है। इनमें धर्मकथानुयोग की स्वतंत्र रचनाएँ, पुरूषपात्र प्रधान बृहद्-कथाएँ, पुरूषपात्रप्रधान लघु कथाएँ, स्त्रीपात्रप्रधान रचनाएँ, तीर्थमाहात्म्य विषयक कथाएँ, तिथि-पर्व, पूजा एवं स्तोत्रविषयक कथाएँ, व्रत-पर्व एवं पूजा विषयक कथाएँ, परीकथाएँ, मुग्धकथाएँ, नीतिकथाएँ, आचार-नियमों के पालन एवं स्पष्टीकरण सम्बन्धी कथाएँ आदि, इन कथाओं एवं कथा-ग्रन्थों की संख्या इतनी है कि यदि इनके नाम मात्र का उल्लेख किया जये तो भी एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन जयेगा। ऐतिहासिक महाकाव्य एवं अन्य कथाएँ पौराणिक काव्यों एवं कथा साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यो ने संस्कृत में ऐतिहासिक कथा गन्थों की रचना भी की है, जे निम्नांकित है- गुणवचनद्वात्रिंशिका, द्वयाश्रयमहाकाव्य, वस्तुपाल-तेजपाल की कीर्तिकथा सम्बन्धी साहित्य, सुकृतसंकीर्तन, वसन्तविलास, कुमारपालभूपालचरित, वस्तुपालचरित, जगडूचरित, सुकृतसागर, पेथडचरित आदि। इसके साथ ही ऐतिहासिक संस्कृत ग्रन्थों के अन्र्तगत जैनाचार्यो ने निम्न प्रबन्ध साहित्य की भी रचना की है- प्रबंधावलि, प्रभावकचरित, प्रबंधचिन्तामणि, विविधतीर्थकल्प, प्रबंधकोश, पुरातनप्रबन्धसंग्रह आदि इन प्रबंन्धों के साथ ही कुछ प्रशस्तियाँ भी संस्कृत भाषा में मिलती है वे निम्न है- वस्तुपाल और तेजपाल के सुकृतों की स्मारक प्रशस्तियाँ, सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी, वस्तुपाल -तेजपालप्रशस्ति, वस्तुपाल प्रशस्ति, अममस्वामीचरित की प्रशस्ति आदि। इन प्रशस्तियो के अतिरिक्त कुछ पट्टवली और गुर्वावलि भी संस्कृत में मिलती है यथा- विचारश्रेणी या स्थविरावली, गणधरसार्धशतक, खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि, वृद्धाचार्य प्रबंधावलि, खरतरगच्छ पट्टावलीसंग्रह, गुर्वावलि, गुर्वावलि या तपागच्छ पट्टावलीसूत्र, सेनपट्टावली, बलात्कारगण की पट्टावलीयाँ, [129]

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