Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 144
________________ और दिगम्बर परम्पराओं में दार्शनिक चर्चाओं को लेकर मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ लिखे गये। आगे हम जैनों के दार्शनिक संस्कृत साहित्य की चर्चा करेंगे। . संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य यद्यपि जैन तत्त्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत भाषा में ही निषद्ध है। जैन तत्त्वज्ञान से संबधित प्रथम सूत्र ग्रन्थ की रचना उमास्वाति (लगभग 2 री शती) ने संस्कृत भाषा में ही की थी। उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्र ग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि। अत: उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैनधर्मदर्शन से संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी। जिनमें न्यायवतार जैन प्रमाण मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। इन सभी की विषय वस्तु दर्शन से सम्बन्धित रही है। इस प्रकार ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी से जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा था। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्वार्थसूत्र के साथ साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था। लगभग 5 वी शताब्दी के अन्त और 6वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होने जैनसाधना के सन्दर्भ में 'समाधितंत्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में ही लिखे। इसी काल खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात् 5 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसको स्वोपज्ञ टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात 7 वीं शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने भी विशेषावशयकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका [140]

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