Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 128
________________ जिनभद्रगणि द्वारा लगभग विक्रम की छटी शताब्दी में प्राकृत में लिखी गई थी, किन्तु उस पर जिनभद्रगणिश्रमाश्रमण ने स्वयं ही स्वोपज्ञ व्याख्या संस्कृत में लिखी थी। चूर्णियों के पश्चात् आगमों पर जो संस्कृत में टीकाएँ एवं वृत्तियाँ लिखी गई, उनमें सर्वप्रथम 8वी शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापना-व्याख्या, आवश्यक-लघुटीका, आवश्यक-वृदटीका, ओघनियुक्तिवृत्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, जीवाभिगमलघुवृत्ति, दशवैकालिकलघुवृत्ति, दशवैकालिकवृहदवृत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, नन्दि-अघ्ययनटीका, प्रज्ञापना-प्रदेश-व्याख्या आदि टीकाएँ और व्याख्या-ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे थे। इन सभी का लेखनमाल प्राय: 8वी शताब्दी ही माना जा सकता है। उसके पश्चात् 10वी शताब्दी में आचार्य शीलांक ने आचाराग और सूत्रकृतांग- इन दो अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी। इसी क्रम में उन्होने जीवसमास नामक आगमिक प्रकरण-ग्रन्थ पर संस्कृत में वृत्ति भी लिखी थी। आगे इसी क्रम में धनेश्वरसूरि के शिष्य खरतरगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोडकर 9 अंग आगमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी। उनके नाम इस प्रकार हैस्थानांगटीका, समवायांगटीका, भगवतीटीका, ज्ञाताधर्मकथाटीका, उपासकदशाटीका, अन्तकृत दशाटीका, अनुत्तरो पातिकटीका, प्रश्नव्याकरणटीका और विपाकसूत्रटीका। इसी आधार पर उन्हें नवांगीटीकाकार भी कहा जाता है, किन्तु इन नव अंग-आगमों अतिरिक्त उन्होंने कुछ उपांगो पर एवं आगमिक प्रकरणों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी है। वे क्रमश: इस प्रकार हैप्रज्ञापनाटीका। इसके अतिरिक्त उन्होंने हरिभद्र के पंचाशक नामक ग्रन्थ पर भी एक वृत्ति भी लिखी है। अभयदेव की इन रचनाओं का काल विक्रम संवत् 1120 से वि.सं. 1135 के मध्य है। आगमिक व्याख्याकारो में इसके पश्चात् आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमीचंदसूरि हुए, उन्होने भी 12वी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन सूत्र पर सुखबोधा नामक संस्कृत टीका लिखी थी। यद्यपि इसमें पूर्व विक्रम संवत 1096 में वादिवेताल श्शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर प्राकृत में एक टीका लिखी थी किन्तु प्राकृत में होने के कारण हम उसकी परिगणना प्रस्तुत संस्कृत टीकाओं में नहीं कर रहे हैं। इसके पश्चात् आगमिक टीकाकारो में मलयगिरि का नाम आता है। इन्होंने आवश्यकबृहवृत्ति, ओघनियुक्तिवृत्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, नन्दिसूत्रटीका, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, प्रज्ञापनावृत्ति, वृहदकल्पभाष्य -पीठिकावृत्ति, भगवती द्वितीयशतकवृत्ति, राजप्रशनीयवृत्ति, विशेषावश्यकवृत्ति, व्यवहारसूत्रटीका [124]

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