Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 38
________________ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाजके कुछ आचार्य जो 84 आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या 10 के स्थान पर 30 मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त 22 नामों के अतिरिक्त निम्न 8 प्रकीर्णक और माने गये हैं - पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, योनिप्राभृत, अंगचूलिका, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती है, फिर भी मूलाचार में आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की गई है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित है। ज्ञातव्य है कि इनमें अंग बालों को प्रकीर्णक कहा गया है। 2 चूलिकासूत्र चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार- ये दो ग्रन्थ माने जाते है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं। . __इस प्रकार हम देखते हैं कि 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र - ये 45 आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य है। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से 10 को कम करके 32-आगम मान्य करते हैं। जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं, वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। इस प्रकार वर्तमानकाल में आगम साहित्य को अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। 12 वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द की ‘सुखबोधा समाचारी' (ई.सन् 1112) में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है। इसमें [34]

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