Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 80
________________ हमें नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध होता है। आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के संदर्भ में भी चूर्णि साहित्य और परवर्ती प्रबंधों में विस्तार सेउल्लेख मिलता है। कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। वीरभद्र के काल के संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमनें गच्छाचार प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पंद्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। किंतु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्वपूर्ण ग्रंथ ईसा की पांचवी-छठीं शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नंदीसूत्र में उल्लिखित हैं, वस्तुतः प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की किंचित सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलतः आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रंथ निवृत्तिमूल जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं। यह हमारादुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासीऔर तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किंतु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाए तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम संस्थान, उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रंथ उन परम्पराओं में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रूचि विकसित होगी। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य के एक महत्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम संस्थान, उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से उपर उठकर इनके अनुवाद को प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्थान के इन प्रयत्नों को प्रोत्साहित करेंगे, जिनके माध्यम से प्राकृत साहित्य की यह अमूल्य निधि जन-जन तक पहुंचकर अपने आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी। [76]

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