Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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________________ संदर्भ 1. अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'- धवला, पुस्तक 13, खण्ड 5, भाग 5, सूत्र 48, पृ. 267, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, पृ.70। 2. वही, पृ.701 3. नन्दीसूत्र, सम्पा. मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, सूत्र 81 / 4. उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा. मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1984, भाग 1, प्रस्तावना, पृ. 21/ 5. वही, प्रस्तावना, पृ. 20-211 6. (क). स्थानांगसूत्र, सम्पा. मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, स्थान 10, सूत्र 1160 (ख). समवायांगसूत्र, सम्पा. मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, समवाय 44, सूत्र 2581 7. देविंदत्थओ(देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1988, भूमिका, पृ. 18-221 8. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, Vol. XVIII, Year 1992-93, pp.74-76. 9. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा 987 / 10. अशवैकालिकचूर्णि, पृ. 3, पं. 12-उद्धृतपइण्णयसुत्ताई, भाग 1, प्रस्तावना, पृ. 191 11. (क). देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा 3101 (ख). ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा 403-4061 12. देपिंदत्थओ, भूमिका, पृ. 18-221 13. पिंडनियुक्ति, गाथा 498 / 14. (क). कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा 63 / / (ख). भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा 1721 15. गच्छायार पइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, 1994, भूमिका, पृ. 20-211 [77]

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