Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 100
________________ नमस्कार करे, यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा 769 में दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, वह तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है। 5. पुनः आवश्यक नियुक्ति की गाथा 763 से774 में यह कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के हास को देखकर आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया," यह कथन भी एक परवर्ती घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि निर्यक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहुनहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित के पश्चात होनेवाले कोई भद्रबाहु हैं। 6. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा 4 एवं ओघनियुक्ति की गाथा 2 में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूंगा ऐसा उल्लेख है। यह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के विभाजन के बाद अर्थात आर्यरक्षित के पश्चात हुई है। 7.आवश्यकनियुक्ति की गाथा 778-783 में तथा उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा 164 से178 तक में 7 निह्नवों और आठवें बोटिक म्रत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अंतिम सातवां निह्नव वीरनिर्वाण संवत् 584 में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीर निर्वाण संवत् 609 में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात हुई है। अतः उनके द्वारा रचित नियुक्ति में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बंधी गाथाएं भाष्य गाथाएं हैजो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किंतु नियुक्तियों में सात निन्हवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियां प्राचीनगोत्रीय पूर्वधरभद्रबाहु की कृतियां नहीं हैं। 8. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा 146 में द्रव्य-निक्षेप के सम्बंध में एक भविक, बुद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख हुआ है।" ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित हुई हैं। अतः इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा आती है। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि * नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। अतः उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं है। यहां मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस बात को स्वीकार [96]

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