Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 74
________________ ___प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक-अमुक ग्रंथ प्रकीर्णक के अंतर्गत आते हैं। नंदीसूत्र और पाक्षिक सूत्र दोनों में ही आगमों के विविध वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रंथों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मान रहे हैं उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों के अंतर्गत हुआहै। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किंतु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि उसके पूर्वन तो प्रकीर्णक साहित्यथाऔर न ही इनका कोई उल्लेखथा। . अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा यह है कि जिस तीर्थंकर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में उतने ही प्रकीर्णक ग्रंथों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक शब्द का तात्पर्य होता हैविविध ग्रंथ / मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में अगमों के अतिरिक्त सभी ग्रंथ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रंथ प्रकीर्णक कहलाते थे। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रंथों कोप्रकीर्णक नाम दिया गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रंथों के नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द नहीं मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रंथ ऐसे हैं जिनके नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवान किया गया हो। नंदूसत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर आगमरूप में मान्य सभी ग्रंथों को प्रकीर्णक कहा है। अतः प्रकीर्णक' शब्द आज कितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति और देववाचक के समय तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दृष्टि से तोअंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य प्रकीर्णकवर्ग के अंतर्गत आता है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अंतर्गत दस ग्रंथ मानने की जो परम्परा है, वह न [70]

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