Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 23
________________ इनमें तीर्थकरों और शलाका पुरूषो के चरित्र प्रमुख है। आगमों में भगवान महावीर आदि के जीवन के कुछ प्रसंग ही चित्रित है। तीर्थकरों एवं अन्य शलका पुरूषो के चरित्र को लेकर, जो प्राकृत भाषा में स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गये, उनमें सर्वप्रथम विमलसूरि के 'पंउमचरियं' की रचना हुई है। रामकथा के संदर्भ में वाल्मिकी की संस्कृत भाषा में निबंद्ध 'रामायण' के पश्चात् प्राकृत भाषा में रचित यही एक प्रथम ग्रंथ है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में निबंध है। इसका रचनाकाल ईसा की दूसरी शती से पांचवी शती के मध्य माना जता है। इसके पश्चात् प्राकृत भाषा के कथा ग्रंथो में संघदासगणि कृत वसुदेचहिण्डी (छटीशती) का क्रम आता है। इसमें वसुदेव की देशभ्रमण की कथाएँ वर्णित है। इन दोनो ग्रंथों में अनेक आवान्तर कथाएं भी वर्णित है। इसके पश्चात आचार्य हरिभद्र के कथाग्रंथो का क्रम आता है। इनमे धूर्ताख्यान और समराइच्चकहा प्रसिद्ध है। इसी प्रकार भद्रेश्वरसूरि की कहावली भी प्राकृत कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ज्ञातव्य है कि जहां विमलसूरिका ‘पउमचरिय' पद्य में है वहाँ संधदास गणिकृत वसुदेवहिण्डी और हरिभद्र का धूर्ताख्यानगद्य में है। नौवी दशमी शती में रचित शिलांक ने 'चउप्पणमहापुरिसचरियं' भी प्राकृतभाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि की 'लीलावईकहा भी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक श्रेष्ठ रचना है। प्राकृत भाषा में निबद्ध अन्य चरित काव्यों में 10वी शती का सुरसुंदरीचरियं, गरूडवहो, सेतुबंध, कंसवहों, चन्द्रप्रभ महत्तरकृत सिरिविजयचंदकेवलीचरियं (सं. 1027), देवेन्द्रगणी कृत सुदंसणचरियं, कुम्माषुत्तचरियं, जंबूसामीचरियं, महावीरचरिय (12वी शती पूवार्ध) गुणपालमुनि कृत गद्यपद्य युक्त जंबुचरिय, नेमीचन्द्रसूरि कृत रयणचूडचरियं, सिरिपासनाहचरियं, लक्ष्मणगणि कृत सुपासनाहचरियं (सभी लगभग 12वी शती) इसी कालखण्ड में रामकथा सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी सृजित हुई थी। यथासियाचरियं, रामलखनचरियं। इससे कुछ परवर्तीकाल खण्ड की महेन्द्रसूरि (सन् 1130) कृत नम्मयासुदंरी भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में 17वी शती में भुवनतुंगसूरि ने कुमारपालचरियं की रचना की। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में काव्य लिखने की यह परम्परा चौथी-पांचवी शती से लेकर 17वीं शती तक जीवित रही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में कालक्रम में महाराष्ट्रीप्राकृत में तीर्थकर चरित्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे गये-यथा आदिनाहचरियं, सुमईनाहचरियं [19]

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