Book Title: Prakrit Ratnakar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan

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Page 9
________________ 1. अंग ग्रन्थ ___ अर्थ रूप में तीर्थकर प्ररूपित तथा सूत्र रूप में गणधर ग्रंथित वाङ्मय अंग वाङ्मय के रूप में जाना जाता है। जैन परम्परा में अंग' का प्रयोग द्वादशांग रूप गणिपिटक के अर्थ में हुआ है - दुवालसंगे गणिपिडगे (समवायांग) नंदीसूत्र की चूर्णि में श्रुतपुरुष की सुन्दर कल्पना करते हुए पुरुष के शरीर के अंगों की तरह श्रुतपुरुष के बारह अंगों को स्वीकार किया गया है - इच्चेतस्स सुत्तपुरिसस्संजं सुत्तं अंगभागगठितं तं अंगपविटुं भणइ।(नन्दी चूर्णि, प. 47 ) इस प्रकार अंगों की संख्या बारह स्वीकार की गई है। वर्तमान में दृष्टिवाद के लुप्त हो जाने के कारण 11 अंग ही उपलब्ध हैं। 2. अंगविजा (अंगविद्या) ___ अंगविज्जा फलादेश संबंधी ईसा की चौथी शताब्दी का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ सांस्कृतिक एवं सामाजिक सामग्री से भरपूर है। अंगविद्या का उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। यह एक लोकप्रचलित विद्या थी जिससे शरीर के लक्षणों को देखकर अथवा अन्य प्रकार के निमित्त या मनुष्य की विविध चेष्टाओं द्वारा शुभ-अशुभ फल का बखान किया जाता था। अंग, स्वर, लक्षण व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम, अंतरिक्ष ये निमित्त के आठ आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों द्वारा भूत और भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यहाँ अन्य निमित्तों की अपेक्षा अंगविद्या को सर्वश्रेष्ठ बताया है। अंगविद्या पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत है। यहाँ कितने ही नामों के रूप-प्रयोग ऐसे हैं जो सामान्यतया व्याकरण के नियमों से सिद्ध नहीं हैं। मूल ग्रंथ काफी खंडित और अशुद्ध है। इस ग्रंथ में 60 अध्याय हैं। आरंभ में अंगविद्या की प्रशंसा करते हुए उसके द्वारा जय-पराजय, आरोग्य, हानि-लाभ सुख-दुख, जीवन-मरण, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि का ज्ञान होना बताया है। आठवाँ अध्याय 3 पाटलों में विभक्त है। इसमें अनेक आसनों के भेद बताये हैं। नौंवे अध्याय में 1868 गाथाओं में 270 विविध विषयों का प्ररूपण है । छियालीसवें अध्याय में ग्रहप्रवेशसम्बन्धी शुभाशुभ का विचार किया गया है। सैतालीसवें अध्याय में राजाओं की सैनिक यात्रा के फलाफल का विचार है। इक्यानवें अध्याय में देवताओं को दो विभागों में प्राकृत रत्नाकर 01


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