________________
( १३ ) अपनो पद, तजि ममता दुखकारी । श्रावक कुल भवदधि तट आयो, बड़त क्योंरे अनारी ॥ अरे ॥ २ ॥ अबहूं चेत गयो कछु नाहीं, राखि आपनी वारी । शक्तिसमान त्याग तप करिये, तब बुधजन सिरदारी || अरे ॥ ३ ॥
२७ राग - काफी कनड़ी ।
मैं देखा आतमरामा ॥ मैं ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गन्ध न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाऊँ नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा । मैं ॥ १ ॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाऊँ, नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा || मैं ||२|| भूलि अनादिथकी जग भटकत, लै पुद्गलका जामा । बुधजन संगति जिनगुरुकी, मैं पाया मुझ ठामा | मैं ॥३॥ २८ राग - काफी कनड़ी - ताल पसतो |
my
अब अघ करत लजाय रे भाई || अब ॥ टेक श्रावक घर उत्तम कुल आयो, भेंटे श्रीजिनराय ॥ अब || १|| धन वनिता आभूषन परिगह, त्याग करौ दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सैया नरक न जाय || अब ॥ २ ॥ विषयकाज क्यौं ज