Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 9
________________ पहिला सर्ग। अपनी ध्वनाओंसे, बगिओंसे, वापिकाओंसे, और छोटी २ तलाइयोंसे ऐसी मालूम होती हैं मानों ये सब अकृत्रिम ही हैं-इनको किसीने बनाया ही नहीं । यहाँके महलोंकी सतरें तो ऐसीं मालूम होती हैं मानों ये रत्नत्रयको धारण करनेवाली जगत द्वारा मान्या, मनोहारिणी और शुद्धमानसा महारानिये ही हैं; क्योंकि इनमें भी तो तीन प्रकारके ( हरे पीले लाल ) रत्न लगे हुये हैं। ये भी तो जगत कर मान्या तथा जगतके मनको हरनेवाली हैं, और इनमें भी छोटे २ मानस ( तालाव ) बने हुये हैं। इन्हीं अपने गुणोंसे ये ( महलोंकी पंक्तियाँ ) अपने इन गुणोंवाले निवासियोंकी बराबरी करती हैं । इस नगरके महलोंमें जड़े हुये रत्नोंकी कान्तिके मारे यहाँके लोगोंको रात-दिनका भेद ही नहीं जान पड़ता। इस लिये वे अपनी इच्छासे सूरजको चाँद और चाँदको सूरज कह दिया करते हैं । यहाँके राजा देवसेन थे। इनका यशरूपी धन पूर्ण चाँदकी नाई निर्मल था । देवसेन नीतिके अच्छे ज्ञाता थे, इसी लिये इनकी प्रजा हमेशा अमन चैनसे रहा करती थी। इनकी महारानीका नाम जयावती था । जयावती कामकी रतिके समतुल्य थी, सती और व्रतनिष्ठा थी, इसके विषयमें और अधिक क्या कहें, यह इन्द्रकी इन्द्रानीसे किसी बातमें भी कम न थी। देवसेन और जयावतीके दो पुत्ररत्न थे । एक प्रवरसेन दूसरा प्रभंजन । ये दोनों कुमार अतीव रूपशाली थे । इनका रूप ताये हुये सोनेके समान था । सज्जनोमें प्रवर प्रवरसेनका पाणिग्रहण (विवाह ) तो वसुंधराके साथ हुआ था और प्रभंजनका सर्वगुणसम्पन्ना पृथिवीके साथ । वसुंधराने एक पुत्रको जन्म दिया जो बहुत ऋजु-सीधासाधा

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