Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 28
________________ .२२ ] प्रभंजन- चरित । प्रसन्न होती हुई अपने पतिके साथ घरको आई और सुखरूपी समुद्र में निमग्न होती हुई तथा अपने पतिके नेत्रकमलको तृप्त करती हुई प्रसन्न चित्तसे रहने लगी । उसके दुराचारको किसीने भी न जान पाया । श्रीवर्द्धन मुनि कहते हैं कि मैंने उसके कहे हुए इस कुचेष्टावाले कथानकको सुन यह निश्चय किया कि जिस तरह इसका कहा हुआ सुलक्षणाका कथानक सुना है उसी तरह यह भी अनुमानसे जाना जाता है- निश्चित होता है कि उसी तरह यह भी हो सकता है । इस अनुमानाख्य कथानकको सुनकर मैंने सोचा साहसोर्वीरुहाकीर्ण, भोगभोगिविभीषणं । कोपव्यालावलीढं च, स्त्रीमानसमहावनं । अर्थात् - स्त्रियों का मन वनसे भी भारी भयानक काननजंगल है | जंगल वृक्षोंसे भरा होता है, स्त्रियोंके मनरूपी वनमें साहस रूपी भयङ्कर वृक्ष होते हैं । वन सर्पोंसे भयानक होता है, स्त्रियों का मनरूपी वन भोगरूपी सर्पोंसे भयानक होता है, फर्क इतना है कि वनमें सर्प डसे तो दवा भी हो सकती है और हकीम भी मिल सकता है, पर भोगरूपी सर्पके काटेकी कोई भी दवाई नहीं और न कोई उसका वैद्य ही है । वन व्यालोंसे भरा होता है, स्त्रियोंका मन-वन क्रोधरूपी व्यालोंसे ऐसे भारी भयंकर स्त्रियोंके मानसरूपी मुनिजन ही भयभीत हुए है; क्योंकि वे धीर और शान्त होते हैं, उनके मानस ज्ञानरूपी कारण स्वच्छ होते हैं । राजन् ! मैंने अनुमानाख्य कथानकको भरा होता है । वनसे -- संसारसे -- केवल होते हैं, जितेन्द्रिय जलसे धोये जानेके

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