Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 40
________________ A AAAAm ३४ ] प्रभंजन-चरित । उछलते हैं, और आकर फिर भी उसी गर्मीमें गिरकर उसी तरहसे मुनते हैं, जिस तरह ताते लोहेके तबेपर डाला हुआ तिलीका दाना, पहले तो उछलता कूदता है, बाद उसी तबेपर गिरकर मुलस जाता है। नारकियोंके रूप भारी भयंकर-भयावने होते हैं, वे दुर्वर्णा होते हैं, क्रूर होते हैं, उनके शरीरसे भारी दुर्गन्धि निकला करती है, उनका डंडक संस्थान-आकार होता है, वे नपुंसक होते हैं। उनके वचन व्रजोपम होते हैं। एक नारकीको पैदा हुआ देखकर उसी समय दूसरे अधम नारकी विभंगाज्ञानसे पूर्व भवके वैरोंको जान २ कर उसे मारनेको चारों तरफसे दौड़ आते हैं । उनको दौड़े आये देखकर अन्य २ नारकी उन्हें भी मारनेको दौड़ते है, तथा मुद्गर, मूशल, शूल आदि हथियारोंसे मारते हैं, पर वहाँ उनकी कोई रक्षा नहीं करता–वे वहाँ अनाथ हैं। दूसरे आकर उनको भी मारते हैं, अग्निमें डालकर खूब मुर्मुर पकाते हैं-कड़ाहोंमें डालकर औट डालते हैं। विक्रियासे मनुष्यके आकार वज्रमय दीर्घ खंभे बनाते हैं और उन्हें अग्निसे खूब तपाकर फिर उनसे नारकियोंको चिपटा देते हैं। मानों अग्नि ही जल रही है, ऐसी गर्म शय्याओंको बनाकर उनपर खूब कीलें चुभा देते हैं। फिर उनपर नारकी, नारकियोंको लिटाते हैं। उस समय वे बहुत हाहाकार करते हैं, पर कोई भी उनकी रक्षा नहीं करता है। एक नारकी दूसरे नारकीके शरीरको बसूलेसे छीलछाल डालते हैं और ऊपरसे महा विषैली २ चीज़ोंका लेप कर फिर नमकसे सींच देते हैं। कई एक नारकियोंको तो दूसरे नारकी ज़मीन खोदकर गाड़ देते हैं और ऊपरसे मिट्टी पूर देते हैं। किन्हीं २ नारकियोंका

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