Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 32
________________ २६] प्रभंजन-चरित । उस स्थान पर जाकर देखा तब उसे मालूम हुआ कि जिसका मैंने हाथ काट डाला है वह तो मेरी माता ही है, और मुजाहीन हो मानेसे बहुत दुःखी हो रही है । माताको देखकर वह सोचने लगाअहो कष्टमहो कष्ट - मंत्रा खादति यत्सुतान् । कोऽन्योऽस्तु शरणं तेषां संसारे सारवर्जिते ॥ अर्थात् — बड़े भारी कष्ट की बात है कि जब इस असार संसारमें अपने पुत्र-पुत्रियोंको माता ही खा जातीं हैं, तब उनको यहाँ दूसरा कौन शरण - सहाई हो सकता है। इतना विचारकर वैराग्यको प्राप्त हुआ मेरु वहाँसे निकला और अपने पिता जयके पास पहुँचा, तथा उनसे आसुओंको बहाते२ माताका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । मेरुके मुखसे उसकी माता एवं अपनी स्त्रीके ऐसे दुष्कृत्यको सुन वे भी विरक्त हो गये । गृहवाससे विरक्त हुए वे दोनों घर से निकल धर्मकी परीक्षा करनेमें दत्तचित्त उन्होंने बुद्ध आदिके बताए हुए धर्मोकी खूब ही जाँच की और अन्तमें श्रीधर नामक मुनिको नमस्कार कर उनसे जैनेन्द्री दीक्षा ले ली और तपमें तल्लीन हो गये । राजन् ! मैंने जय और मेरुका कथानक तो थोड़ासा आपको सुना दिया । इस प्रकार जय और मेरुका कथानक पूरा हुआ। अब मैं शुंदके कथानकको कहता हूँ सो तुम सावधान हो सुनो । इसी भरत क्षेत्र में एक हस्तिनापुर नगर है, इस नगरके राजा शुंद थे। वे बहुत सुन्दर आकारवाले थे । और उसका कोई भी बैरी न था । उनकी रानीका नाम मदनावली था । वे भी बड़ी सुन्दरी थीं, कामदेवके धनुषकी डोरीके समान ही थीं; तन्वंगी - कृशांगी थीं । ऐसी

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