Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 31
________________ चौथा सर्ग। [ २५ सब बातोंका मुझे खूब अनुभव भी हो गया है सो सब मैंने आपसे कह ही दिया है । इस प्रकार प्रभंजन गुरुके चरितमें यशोधरचरितकी पीठिकाकी रचनामें तीसरा सर्ग पूरा हुआ। चौथा सर्ग। इस प्रकार अपने तपका कारण कहकर श्रीवर्द्धन मुनिराजने जय और मेरुके तपका कारण कहना शुरू किया। भरतक्षेत्रमें कीर्तिपुर नामक नगर है, इस नगरके राजा जितशत्रु थे। उनकी रानीका नाम जयावती था। मंत्रीका नाम जय था, वे द्विज थे। उनकी स्त्रीका नाम जयश्री था, वह पतिकी अनुकूला और प्रियभाषिणी थी। जय मंत्री और जयश्रीके सात पुत्र थे, वे सभी ६४ कलाओंमें तथा और २ गुणोंमें कुशल थे, एवं उनके मंदिरा आदि छः पुत्रियाँ भी थीं, वे सभी सरल स्वभाववालीं और मनोरमा थीं। इन सभी पुत्र और पुत्रियोंको विवाहके समय क्रम २ से इन्हींकी माता-डाकिनीने मार खाया था, केवल एक मेरु बचा था। वह अन्तिम पुत्र मेरुके समान निश्चल मनवाला था; नीतिनिपुण, विनयी और आचार व्यवहारमें अतीव प्रवीण था। जब इसके विवाहका भी समय आया तब इसने रातके समय घरमें खूब रोशनी करवाई, और आप हाथमें चमचमाती हुई तलवारको लेकर उसी घरमें जा बैठा। थोड़ी देरमें उसे घरके एक किसी कोनेमें एक हाथ दीख पड़ा जो कि चूड़ियोंसे मण्डित एवं मनोहर था। मेरुने उसे देखते ही काट डाला, उस समय दयाभावसे बिल्कुल ही काम न लिया। बादमें

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