Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 30
________________ २४ ] प्रभंजन -चरित | I कि संसारमें शरण हैं, उत्तम हैं, मंगलरूप हैं, आदरके साथ निष्काम हो स्मरण किया । मैंने विचारा कि मेरा दर्शनज्ञानस्वरूप एक आत्मा ही शाश्वत है । इसके सिवाय जितने मिलते और विछुड़ते हुए पदार्थ हैं वे सब ही नश्वर हैं--मेरी आत्मासे भिन्न हैं । इस प्रकार धर्म ध्यानमें लीन हुए मुझे सुभद्राने देखा । उसने मुझे कहा कि भव्य ! यदि तुम जीना चाहते हो तो मेरे साथ कम्भ-क्रीड़ा करो। इसके बाद उन दोनों और पुत्रको ज़मीनमें डालकर वह मेरे पास आ गई और स्त्रीके कृत्योंको करने लग गई । वह अपने मनचाहा तो मधुर २ बोली, मनमाना मेरे शरीर से संगम करती रही, हँसती रही, हावभाव आदि करती रही, कटाक्षोंसे देखती रही, तथा अपने केशोंको छुटका २ कर वार २ बाँधती रही और स्तन आदिकों को प्रगट कर २ दिखाती रही, मेरी अँगुलियोंको तोड़ती रही, अंगों को ऐंठती रही, जंभाई लेती रही । अधिक क्या कहें इस प्रकार उसने अपनी नाना प्रकारकी विडंबना की, पर जब वह मेरे मनको बिल्कुल न चला सकी तब बहुत लज्जित हुई और शस्त्र लेकर मुझे मारनेको तैयार हुई । उस समय किसी देवताने आकर उसे पकड़ लिया और चित्रकी नाई स्थिर कर दिया । प्रातः कालके समय अब उपसर्ग नहीं करना " यह कह कर व्यन्तरीने उसको छोड़ दिया । मानों उसने मेरे अभिप्रायको ही जान लिया हो, और नमस्कार कर चली गई । जब सूर्य उदित हो गया, मार्ग में लोग जाने आने लगे, वह प्राशुक हो गया तब मैं भी उस मकानसे निकल धीरे २ इस पुरीमें आया हूँ । (( राजन् ! मैंने जो कुछ देखा सुना और अनुमानसे निश्चय किया वही मेरे तपका कारण हुआ है, तथा सुभद्राके संग से उन

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