Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 35
________________ चौथा सर्ग। [२९ श्रीपाल थे। इनकी रानीका नाम मंगली था । उसके एक मंगिका नामकी पुत्री थी। श्रीपालके मंत्रीका नाम वज्रवेग था । मो कि. सज्जनोंको बहुत प्रिय था। मंत्रीकी स्त्रीका नाम वज्रोदरी था। वज्रवेग और वज्रोदरीके पुत्रका नाम वज्रायुध था तथा उसको सहस्रभट और वज्रमुष्टि भी कहते थे । किसी समय राजा वज्रायुधके वीर्यको देखकर बहुत सन्तुष्ट हुए थे और उन्होंने अपनी कन्या ( मंगिका ) का विवाह उसके साथ कर दिया था। कुछ दिनोंके बाद वसंत ऋतु आई। तब राजा, मंत्री, जमाई, तथा और २ सामन्तोंको साथ लेकर क्रीड़ा करनको वनमें गये । इसी बीचमें वज्रोदरीने एक गुंजा नामके सर्पको घड़ेमें रक्खा। वह बार २ अपनी लाल जिह्वाको फर २ निकालता था, भारी भयानक था,, बड़े विस्तारवाला और लम्बा चौड़ा था तथा उसी घड़ेमें, सुन्दर २ वस्त्र, दिव्य २ आभूषण, कर्पूर कुसुम और चंदन आदिका बना हुआ:सुगन्धि-लेपन, तथा पुष्पोंकी गंधमय मालायें जो सुन्दर २ पुप्पोंसे बनाई गई थीं और मनोहर एवं उज्वल तारावलि–हारावलि आदि पदार्थ भी रक्खे । इन सबको लेकर मंगिकासे कहा कि शोभने ! आजकल वसन्तका समय है इस लिये तुम नये २ वस्त्र और आभूषण वगैरह पहिन लो । अपनी सासूके इस प्रकारके कपटसे भरे हुए वचनोंको सुन विचारी मंगिकाको उसके कपटका कुछ भी भान न हुआ । वह शीघ्र ही अपने अच्छे भावोंसे उसके वचनोंका आदर करने लगी, और ज्यों ही उसने घड़ेके अन्दर अपना हाथ डाला त्यों ही घड़ेमें बैठे हुए सर्पने क्रुद्ध होकर उसके हाथको पकड़ लिया। उसके सारे

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