Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 37
________________ - चौथा सर्ग। [३१ लेनको तालावपर चला गया। मथुरामें एक जीवन्धर नामक सेठ थे, उनकी भार्याका नाम जया था । जीवन्धर और जयाके सात पुत्र थे । उनके नाम विजय, वसुदत्त, सूर्य, चन्द्र, सुप्रैभ, जयभद्र, जयमित्र इस प्रकार थे । वे सभी सातों व्यसनोंसे दु:खी थे, बहुलतासे वे चोरीसे नष्ट भ्रष्ट हुए थे और एकको छोड़कर शेष सब उज्जैनीमें आकर ठहरे हुए थे, तथा उनमेंसे एक उसी स्मशानभूमिमें बैठा था। उसे वहाँ बैठा देखकर मंगिका उसपर आसक्त हो गई और कामके बाणोंद्वारा वेधी जाने लगी। तब उसने चोरसे कहा कि मैं आपकी सेवा करना चाहती हूँ। चोरने उसके इन वचनोंको सुनकर लज्जित होते हुए कहा कि तुम्हारा पति सहस्रभट है; इस लिये मैं डरता हूँ। इसपर मंगिकाने कहा कि उसको तो मैं मार डालूंगी, तुम कुछ भी भय मत मानो । यह सुन चोरने अपने मनमें विचारा कि जो स्त्री अपने रूपशाली, यौवनशाली, और धनाढ्य पतिको भी मारनेके लिए तैयार है, वह दुष्टा मुझे क्या छोड़ेगी ? इतने में सहस्रभट तालावपरसे कमलोंको लेकर आया और मुनिराजके चरणोंको पूजकर ज्यों ही नमस्कार करनेको नम्र हुआ त्यों ही मंगिकाने खींचकर जल्दीसे उसके गलेपर तलवार चलाना प्रारम्भ किया कि पीछेसे चोरने आकर तलवार पकड़ ली । बाद वज्रायुध तो मंगिकाको लिवाकर अपने घरको चला आया, और चोर धनको लेकर अपने भाइयोंके पास उज्जैनी चला गया । वहाँ उसके लाये हुए द्रव्यके उसके भाइयोंने सात हिस्से किये । उनको देखकर विरक्तधी भद्र नामक चोर बोला कि मुझे धनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं; मैं धन नहीं चाहता हूँ। तब उसके भाइयोंने पूछा कि हे

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