Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 33
________________ चौथा सर्ग। [ २७ रानीके साथ कलालय महाराजा शुंद समय २ पर क्रीड़ा किया करते थे। एक समय रानीके साथ महाराज वनमें क्रीड़ा करनेको गये थे। वहीं उन्होंने रानीको रातके समय एक बन्दरके साथ काम क्रीड़ा करते हुए देख लिया और क्रोधमें आ धनुषपर बाण चढ़ाकर उस बन्दरको मार डाला। अपने अभीष्ट फलकी वाञ्छासे उस दुष्टा रानीने कहा कि राजन् ! इन बन्दरोंका चरित बड़ा दुष्ट होता है; इस लिये इस बन्दरको आप जला ही देखें तो अच्छा है। क्या आपने नहीं सुना कि इन लोगोंने रावणको मार डाला था? रानीके वचनोंको सुनकर राजाने श्रीखण्ड, अगरु आदि लकड़ियोंसे उसे जला दिया। इतनेमें रानी आई और उस बन्दरके स्नेहसे उसकी चितापर कूद पड़ी-दग्ध हो गई। यह देख शुंद बहुत विस्मित हुए । अतः वे जिनदत्त मुनिके पास गये और वहाँ उनके उपदेशसे धमको समझकर उनसे दीक्षा ले ली और तप करने लगे। इस प्रकार शुंदका कथानक पूरा हुआ। श्रीवर्द्धन मुनिराज, प्रभंजन राजासे कहते हैं कि हे अपराजित ! सबुद्धे ! कषायविजेता राजन् ! अब आप अपराजित मुनिका कथानक सुनो। इस भरतक्षेत्रमें एक कौशांबी पुरी है। इस पुरीके राजा बलाधिप थे। उनकी रानीका नाम जया था। उनके पुरोहितका नाम अपराजित था। वे द्विज थे, उनकी स्त्रीका नाम जयमाला और पुत्रका नाम पाल था। पालकी बहिनका नाम श्रीदेवी था जो कि मंत्र तंत्रकी सिद्धि में बहुत चतुरा थी। उसकी मदनवेगा नामकी सखी थी, जिसके मनमें कामदेवका सतत वास रहता था। श्रीदेवीका विवाह राजगृहके जयभद्रके साथ हुआ था। वहाँ उसने किसी चिलात ( भील)से

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