Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 17
________________ दूसरा सर्ग। [११ विरक्त हो हम लोगोंने तपका शरण लिया है। इनमेंसे किसके लिए कौन कारण हुआ ? यह बात आगे स्पष्ट हो जायगी। __अब मैं (श्रीवर्धन ) अपने तपका कारण सुनाता हूँ। मैंने वलभीपुरमें रहकर सोमश्रीका चरित्र तो स्वयं देखा है। पटनामें सुलक्षणाका चरित सुना है । प्रयागमें दूतीका चरित अनुमानसे जाना है तथा ब्रह्मकुवरमें सुभद्राके चरितका स्वयं अनुभव किया है। सार यह है कि इन चारोंने ही बड़े २ दुर्घट कार्योंको भी सहसा करके दिखाया है। __पटना नगरके राजा नंदिवर्द्धन थे। उनकी रानीका नाम सुनंदा और पुत्रका नाम श्रीवर्द्धन था। श्रीवर्द्धन बड़े तीव्रबुद्धि थे। इस लिये इन्होंने थाड़े समयमें सत्रह लिपिया सीख लीं थीं; पर वे म्लेच्छ भाषाकी लिपिको नहीं जानते थे । एक समय यवनेश ( म्लेच्छराजा ) ने नंदिवर्द्धन महाराजके पास एक पत्र भेजा। उसकी लिपि म्लेच्छभाषाकी थी। लेखवाह-पत्र लानेवालेने उस पत्रको लाकर नंदिवर्द्धन महाराजके सामने रख दिया । नंदिवर्द्धन श्रीवर्द्धन आदि सभीने उस पत्रको पढ़नेका प्रयत्न किया; पर वह किसीसे भी न पढ़ा गया । उस समय पूर्व शुभ कर्मके उदयसे श्रीवर्द्धनके बहुत विरक्त भाव हुये । वे घरसे निकल वलभीपुर पहुँचे । वहाँ गर्गनामधारी एक अध्यापकके यहाँ रहने लगे। जब पाँच दिन बीत गये तब उन्होंने उपाध्यायसे कहा-मैं आपके प्रसादसे यवन लिपिको जानना चाहता हूँ। उस द्वीनाग्रणी गर्गने श्रीवर्द्धनको पात्र समझकर उनका कहना स्वीकार कर लिया । श्रीवर्द्धन भी गुरुकी विनय करते हुए लिपि सीखनेकी

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