Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 18
________________ १२ ] प्रभंजन-चरित । इच्छासे रहने लगे । एक दिन रातके समय उन गर्ग महाराजकी सोमश्री स्त्री कहींको जा रही थी । उसको कहीं जाती देख गर्गने कहा- बच्चे को छोड़कर तू कहाँ जाती है ? उत्तर में उसने कहायदि आप आज्ञा दें तो नृत्य देख आऊँ । विप्रने कहा- तुम्हीं जानो जैसा ठीक हो। वह हर्षित हो नृत्य देखनेको चली गई । शिष्य ( श्रीवर्द्धन ) भी उसके पीछे २ हो लिया और कहीं पर छिपकर बैठ गया। कुछ दूर एक यक्षका मठ था । वहाँ सोमश्री गई और बहुत देर तक अपने जारके साथ क्रीड़ा करती रही। बाद कहने लगी कि आप मेरे घर चलकर विश्राम करिए । जारने कहा - यह तो बड़े आश्चर्य की बात है; क्योंकि यहाँ तो हम तुम क्रीड़ा कर रहे हैं । इस लिये यह स्थान तो रमणीक है, पर तुम्हारे घर तो कुछ भी न कर सकेंगे। तो फिर वह रम्य कैसे हो सकता है। तात्पर्य यह है कि वहाँ जाना ठीक नहीं; क्योंकि वहाँ अपना कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है । बाद सोमश्रीने संकेतभरे शब्दों में कहामेरी पालिका (सुलक्षणा ) घरसे चली गई थी और बहुत वर्षोंतक बाहर रही भी थी; बाद अपने जार और पुत्र सहित किसी तर की से अपने ही घरमें रहने लगी थी । इस सब बात-चीत के बाद वे दोनों वहाँसे निकलकर घरको चले आये, तथा वह शिष्य ( श्रीवर्द्धन ) भी किसी दूसरे मार्गद्वारा गुरु गर्गके घर आ पहुँचा । सोमश्री के संकेत के अनुसार वह जार गर्ग उपाध्यायके घर आया और उनसे कहने लगा- विप्र ! मैं अपनी स्त्री सहित आपके यहाँ निवास करना चाहता हूँ; मैं एक पथिक हूँ। अब इस समय रातमें कैसे और कहाँ जाऊँ ? दयालु गर्गने उन्हें अपने घरपर रहनेकी आज्ञा

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