Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 22
________________ प्रभंजन-चरित। अन्य वस्तुओंका त्यागी है । उसके इन वचनोंको सुन, श्रीधरका मन बहुत प्रसन्न हुआ और वह उसके जाने हुए मनको और भी निश्चित जाननेके लिये बोला किमतः करणं प्रोक्तं, को निंद्यस्तत्त्ववेदिभिः । मनोभवः क चेतस्के, कः पीडाकृन्ममाधुना ॥ १ ॥ अर्थात्-इसमें प्रबल कारण क्या माना गया है ? तत्त्ववेदी लोग किसकी निंदा करते हैं ? ( उत्तर-कामदेव.) कहाँ उत्पन्न होता है ? ( उत्तर--कामकी उत्कंठावाले पुरुषके मनमें ) इस समय मुझे पीड़ा कौन दे रहा है ? (उत्तर-कामदेव ) श्रीधरके वचनोंको सुनकर जनप्रिया सुलक्षणाने कहा पृच्छत्यवगमं साधो ! कः सदात्र कलिप्रियः। किं च प्रजायते ब्रूहि, को ममासून् जिहीर्षति ॥१॥ तथाप्यन्तः शकटं प्राप हास्मत्पीडनो रिपुः । अर्थात्-हे साधो ! साधु लोग आगममें क्या पूछते हैं ? (उत्तरपुरुष (आत्मा ) संसारके इस कलिकालमें क्या प्यारा है ? (उत्तर-कामदेव ) मेरे मनमें क्या उत्पन्न हो रहा है और मेरे प्राणोंको कौन हरना चाहता है ? ( उत्तर-कामदेव )। फिर भी तो वह मुझे पीड़ा देनेवाला मेरा वैरी मेरे मनको प्राप्त हो चुका. सो क्या ? इस प्रकार परस्परमें बात-चीत करनेसे अतीव प्रीतिको प्राप्त हुए उन दोनोंका रागरूपी समुद्र, उसी तरह वृद्धिको प्राप्त हुआ जिस तरह उनले पाखके चन्द्रमाकी किरणोंसे समुद्र वृद्धिंगत होता है। सुलक्षणाने कहा कि मैं कुछ काल यक्षगृहमें ठहरकर राजमार्ग

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