Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ १४ ] प्रभंजन-चरित । नवग्रह, समुद्रका जल, और बालुका ढेर इनका परिमाण तो किसी तरहसे जाना भी जा सकता है, पर स्त्रीका मन किसीसे भी नहीं जाना जा सकता है । अन्तमें शिष्यने सोचा कि बहुत विकल्पनाल उठानेसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इन सब बातोंको कल उपाध्यायीहीसे पूछ लूंगा । श्रीवर्धन मुनिराजने प्रभंजनसे कहा कि दुष्ट चेष्टाको करनेवाली, पापकी खानि स्त्रियोंका जो हाल मैंने स्वयं देखा है वह तो आपसे कह दिया । अब कुछ सुना हुआ हाल कहता हूँ उसको भी आप सावधान हो सुनो । इस प्रकार प्रभंजन गुरुके चरितमें यशोधरचरितकी पीठिकाकी रचनामें दूसरा -सर्ग समाप्त हुआ। तीसरा सर्ग। एक दिन निर्लज्जा सोमश्रीने कुछ संकेतोंमें उस छात्र (श्रीवर्द्धन ) से कहा-भद्र तुम जबतक मेरे मनोरथको पूरा न करोगे तबतक तुम्हारा लिपि सीखनेका मनोरथ कैसे सिद्ध हो सकता है? कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता हैं । सोमश्रीकी चेष्टासे उसके मनोरथको जानकर शिष्यने उत्तर दिया कि तुम्हारा भी मनोरथ इस जगह कैसे फलित हो सकता है ? सोमश्रीने कहा कि मेरी पालिका (सुलक्षणा)ने जैसी विधि की उसी तरह अपन भी दूसरी जगह चलें। शिष्यने पूछा कि शुभे! सुलक्षणाने कैसी विधि की थी सो कहो। श्रीवर्धन मुनिने प्रमंजन महाराजसे कहा-आर्यपुत्र ! मेरे पूछनेपर जैसी कुछ सुलक्षणाकी की हुई विधि मुझे मेरी उपाध्यायीने बताई थी वह सब मैं कहता हूँ, तुम स्थिर चित्त हो सुनो।

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118