Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 16
________________ १०] प्रभंजन- चरित | अब वे दोनों ही पितांपुत्र एक दूसरेकी कथा सुनते हुए सुखसे काल बिताने लगे । इसमें संदेह नहीं कि आपत्तिके समय संयोग होना ही सुखका कारण है, फिर यदि वह संयोग पितापुत्रका हो तब तो कहना ही क्या है । एक दिन प्रभंजनने अपने पुत्र से कहा-पुत्र ! मैंने तुम्हारे वियोगसे दुःखी हो नगरदेवताको कुछ भेट देना स्वीकार किया था । वह भेट मुझे अब देना चाहिये । इस लिये तुम पहिले देवीके गृहकी सफ़ाई कराओ, पीछे और कुछ होगा । राजाने उसी वक्त वहाँ अपने चतुर २ सिपाहियों को भेज दिया । वे लोग वहाँ पहुँचे और वापिस आकर कहने लगे कि महाराज ! वहाँ आठ निर्ग्रन्थ यतीश्वर बैठे हुए हैं। वे किसी तरह भी वहाँसे दूसरी जगहको नहीं जाते हैं। यह सुन प्रभंजन बहुत क्रुद्ध हुए और वे स्वयं वहाँ चले गये । वहाँ जाकर उन्होंने उन आठ यतीश्वरोंको देखा । वे वास्तवमें वहीं बैठे थे। उनके दर्शनमात्र से प्रभंजनका मन बिल्कुल शान्त हो गया । सच है, मुनीश्वरोंको देखकर सिंह आदि हिंसक जन्तु भी जब शान्त हो जाते हैं तब फिर मनुष्यकी तो बात ही क्या है ! उन सबको क्रमसे नमस्कार कर प्रभंजन उनके समीपमें बैठ गये और क्रम २ से उनके नाम और उनके तपका कारण पूछने लगे। तब सबमें प्रमुख, अवधिज्ञानी, एक यतिने उत्तर दिया- राजन् ! मैं क्रमसे तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देता हूँ तुम सावधान हो सुनो। हम आठोंके नाम, श्रीवर्द्धने जये, मेरूँ, शुंदै, अपराजितै, पालेँ, वज्रायुध और नंद इस प्रकार हैं। हम लोगोंके तपके कारण उपाध्यायी, चूडाली, कपिसंगति, बालहत्या, मंगिका और यशोधर महाराज हैं अर्थात् इनकी कुचेष्टाओंसे

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