Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 14
________________ प्रभंजन-चरित । पुत्रका समागम न मिलेगा तबतक चाहे कोई मेरे प्राणोंको हरनेवाला ही शत्रु क्यों न हो, किसीपर भी वार न करूँगा; अब तो मैं शान्तिसे रहूँगा । इस प्रकार अंग, बंग, कलिंग आदि बहुतसे देशोंमें भ्रमण कर वे कुछ समय बाद उसी विशालापुरी(उज्जैनी)में आये जहाँ सरल नामक उन्हींका पुत्र राजा था। वहाँ सिप्रा नदीके किनारे उन्होंने अपने वस्त्र उतारकर रख दिये और मार्गकी थकावट दूर करनेको स्नान करनेके लिए वे नदीमें उतरते ही थे कि इतनेमें काकतालीय न्यायसे पृथिवी भी जलक्रीड़ाके लिये उसी जगह आ गई। उसने प्रभंजनको नदीमें उतरते देख दूरसे ही पहिचान लिया और सोचने लगी कि यह प्रभंजन यहाँ भी आ गया है। अब इस समय क्या उपाय करना उचित है ? इस प्रकार सोच विचार कर उस कपटाचारिणी पापिनीने प्रभंजनको नष्ट करनेके लिये उनके वस्त्रोंके नीचे अपने आभूषण वगैरह छुपा दिये और रोने चिल्लाने लगी-“हा! मैं लुट गई ! हा! मेरे देखते २ ही मेरे आगेसे किसीने अभी २ मेरा हार हर लिया। उसकी दासियोंने भी उसीकी तरह कोलाहल करना शुरू कर दिया। उनके भारी कोलाहलको सुनकर कोटपाल इकटे होकर आ गये और पूछने लगे कि कहो २ कहासे किसने तुम्हारा क्या ले लिया है? कोटपालोंने इधर उधर हारको खोजाः तब उन्होंने प्रभंजनके पास पाया फिर क्या था! उसी वक्त उन अविवेकियोंने प्रभंजनको बाँध लिया और मारनेको ले चले । एक पुरुषने जिसका नाम कलश था इस तरह प्रभंजनको लिये जाते देख कोटपालोंको खूब ही डाटा और वह मिष्टभाषी उसी समय महाराजके पास चला गया। वह महाराजसे

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