Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 12
________________ प्रभंजन-चरित । गया था; इस लिये अपने एक मित्रकी सलाहसे वह देशाटन करनेको चल पड़ा, और बहुतसे देश, नदी, पर्वत और वनोंमें घूमकर विशालापुरी (उज्जैनी) में आ गया । वहाँ किसी उद्यानमें स्नान आदि नित्य क्रियाओंसे निवट, कुछ फलोंको खाकर तथा जल पीकर एक वृक्षके नीचे थकावट दूर करनेको सो गया । दैवयोगसे उसी समय विशालापुरीके श्रीपाल महाराजका देवलोक हो गया था। उनके कोई सन्तान न थी। मंत्री पुरोहित आदिने बहुत खोज की; पर उन्हें जब कोई पात्र न मिला तब उन्होंने यह निश्चय किया कि राजहाथी छोड़ा जावे । वह जिसे पकड़ ले, वही पुरुष राजा बना दिया जावे। सबकी सम्मतिसे कुम्भस्थलपर फेरनेसे चंचल है सुंडा जिसकी ऐसा नाना भूषणोंसे विभूषित राजहाथी छोड़ दिया गया। हाथी जब सारे नगरमें घूम चुका तब उसी उद्यानमें आया जहाँ सरलकुमार सो रहे थे। उसने आकर सरलकुमारको अभिषिक्त करके ग्रहण कर लिया। उस समय मंत्री आदि सब लोगोंने बड़े हर्षके साथ कुमारको हाथीपर बैठाया और जयध्वनिके साथ नगरमें ले आये । वहाँ कुमारको छत्र, चमर आदि विभूतिसे विभूषित कर राजगादीपर बैठा दिया। ग्रन्थकार कहते हैं कि किसीका राज्य छूट भी जाय, पर यदि उसके पुण्यका जोर हो तो उसे दूसरा राज्य मिल जाता है । इस लिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे जैनमार्गके अनुयायी हो पूजा, व्रत, नियम आदि स्वभावोंसे पुण्यका उपार्जन करें। इस प्रकार प्रभंजन गुरुके चरितमें यशोधरचरितकी पीठिकाकी रचनामें सरलकुमारको विशालापुरीका राज्य मिलनेका प्रतिपादक पहिला सर्ग पूर्ण हुआ ।

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