Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 13
________________ दूसरा सर्ग। दूसरा सर्ग। जब कालको दमन करनेवाले प्रभंजन महाराज, अपने भाईको सब प्रकारका सुखी कर अपनी राजधानीमें आये तब वहाँ उन्होंने रानीका सब वृत्त सुना और देखा । वे बहुत दुःखी हुए और सोचने लगे कि इस आत्माको दूसरोंकी संगतिसे कौन २ से दुःख नहीं भोगने पड़ते अर्थात् यह सभी दुःखोंको भोगता है। स्त्रियाँ संसारका कारण हैं, अनर्थोकी जड़ हैं, दयाकी दुश्मन हैं, एवं लज्जा और अभिमानसे दूर रहनेवाली हैं। ये अपनी इन्द्रियों और अपने मनको वशमें नहीं कर सकतीं, और {श्चली ( व्यभिचारिणी ) होती हैं। जब ये स्वार्थसे अन्धी हो जाती हैं तब विना प्रयोजन ही भाई, जमाई, पुत्र, पौत्र, पति, गुरु किसीके भी मारनेको नहीं हिजकतीं हैं । सौ बातकी एक बात तो यह है कि संसारमें जीवोंको जितना कुछ दुःख होता है वह सब इन्हींके कारण होता है। इतना सोच विचर कर प्रभंजनने अपने बड़े भाईके पुत्रको अपना राज्यभार सौंप दिया और आप घरसे बाहर चले गये। हा! पुत्र तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये, वहाँ तुम जीते जागते हो अथवा कालके दावमें पड़ गये हो! इस प्रकार बादमें विलाप करते हुए वे पृथिवीतलपर विहार करने लगे । वे सोचने लगे कि मैंने अपने पहले भवमें किसीके पुत्रका वियोग किया होगा उसीका फल ऐसा दारुण दुःख मिला है जो सहा नहीं जाता और लाघा भी नहीं जाता । अब जबतक मुझे

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