Book Title: Prabhanjan Charitra
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 11
________________ पहिला सर्ग। आज्ञाको स्वीकार कर चले गये। शत्रुको वशमें कर प्रवरसेन अपने छोटे भाई सहित घरको लौट आये और वहाँ सुखसे काल व्यतीत करने लगे। एक समय प्रभंजन राजाकी रानी पृथिवीदेवीकी दृष्टि कुमति मंत्रीके ऊपर पड़ी। उसको देखकर रानीकी कामाग्नि जल उठी। पृथिवीने कुमतिको बुलाया और उससे अपने मनका सब हाल कह दिया। कुमतिने भी उसके कहनेको मान लिया और वह उसके साथ कामभोग भोगता हुआ सुखसे रहने लगा । जब रानीने सुनाकि प्रभंजन महाराज घर आनेवाले हैं तब उस पापिनीने रातके समय कुमतिसे कहा-तुम सरलको मार डालो, क्योंकि यह हम लोगोंके मनोरथकी सिद्धिमें बाधक हो रहा है, तथा बहुतसा धन भी साथ लेकर यहाँसे हम तुम दोनों कहीं दूसरी जगह चलें। कुमतिने रानीका कहना सब मान लिया । एक दिन रानी सरलको देखकर जब रोने लग गई तब सरल-हृदय-सरलने पूंछा-माता ! तुम रोती क्यों हो ? रानीने उत्तरमें उससे अपना सब वृत्त जैसाका तैसा कह दिया । सुनते ही सरल एक शिल्पीके यहाँ गया और उससे अपने सरीखा एक पूतला बनवा लाया तथा माताके कृत्योंको देखनेकी इच्छासे उसको अपनी शय्यापर लिटा आया । रातके समय माता आई । उसने उस पूतलेके खण्ड २ कर दिये, तथा यह समझ कर कि पुत्र तो मर गया है अब और कोई विघ्न नहीं है, उसने कुमतिको बुलाया और उसे वह साथ लेकर घरसे - बाहर निकल गई । थोड़े ही समयमें वे दोनों उज्जैनी पहुँचे और वहाँ एक मकान लेकर सुखसे रहने लगे । इधर सरल भी अपनी माताकी चेष्टा देखकर उदास हो

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