Book Title: Parvatithi Charcha Sangrah
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 58
________________ महाराज श्री जवाहीरसागरजी पोष शुदी पंचमी के दीन यहां पधार्या है व्याख्याण में श्री उवाइसूत्रकी टीका वांची ते सुण कर संघ बहुत आनन्द पाम्यो और घणा जीव धर्म में द्रढ हुआ अट्ठाइ महोछव दिक होने से जैनधर्मकी घणी उन्नति हुई बाद जेठ मास में श्रीपाली १, रामपुरा २, पंचपहाड ३, लुणावाडा ४, गोधरा ५ वगेरेह कीतनाक गामोंका संगको तरफसे चौमासा की विनति छति पिण यहां के संघे बहुत अरज करके चौमासा यहां करवाया है. यहां दो ठिकाणे व्याख्यान वंचता है एक तो मुनी जवाहोरसागरजी श्री आचारांगसूत्र नियुक्ति टीका समेत बांचते हैं श्रावक-श्राविका वगेरह आनंद सहित सुननेको रोजीना आता है तेथी श्री धर्मकी वृद्धि होती है दुजा श्री तपगच्छ के श्रीपूज्यजी महाराज श्री विजयधरणेंद्रसूरीजीकुं भी संघने चौमासो यहां करवायो है वां श्री पन्नवणा सूत्र वंचाता है एक दिन श्रावकोए मुनी जवेरसागरजीने पुछा की अब के श्री पर्युषणमें सुदो २ टुटी है सो एकम दूज भेली करणीके कोइका केहेणा बारस तेरस भेगी करणी का हे वो करणी इसका उत्तर इस माफक दिया कि श्री रत्नशेखरसूरिक्त श्राद्धविधिकौमुदी अपरनाम श्राद्धविधि ग्रंथमें कह्यो छे कि प्रथम मनुष्य भवादिक सामग्री पामी निरंतर धर्मकरणी करवी निरंतर न बने तेने तिथिके दिने धर्मकरणो करवी. ___यदुक्तं-जइ सव्वेसु दिने (णे) सुं, पालह किरिअं तओ हवइ लठं (8) । जय (इ) पुण तहा न सकह, तह विहु पालिज पव्वदिणं ॥१॥ एक पखवाडामें तिथि छ होवे-यदुक्तं-बि (बी) या पंचमी अष्ट (8) मी ग्यारसी (एगारसी) चौ (चउ) दसि (द्दसी) पण तिहीउ (ओ) एआओ सुह (य) तिही (ओ) गोअमगणहारिणा भणिआ ॥ १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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