________________
संन्यासमार्ग बाद में विकसित हुए । आर्यो के गंगा-तट एवं सरस्वती-तट पर पहुँचने से पूव' ही लगभग बाईस प्रमुख सन्त अथवा तीर्थकर जैनों को धर्मोपदेश दे चुके थे, जिनके बाद पाश्व हुए और उन्हें अपने उस समस्त पूर्व तीर्थ करों का अथवा पवित्र ऋषियों का ज्ञान था, जो बड़े-बड़े समयान्तरों को लिए हुए पहले हो चुके थे। उन्हें उन अनेकों धर्मशास्त्रों का भी ज्ञान था जो प्राचीन होने के कारण पूर्व या पुराण कहलाते थे और जो सुदीघ काल से मान्य मनियों, वानप्रस्थों या वनवासी साधुओं की परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित होते आ रहे थे।
जार्ज शापेण्टियर ने 'केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ जैनाज' में लिखा है, "प्रोफेसर याकोबी तथा अन्य विद्वानों के मत के आधार पर पार्श्व ऐतिहासिक पुरुष और जैन धर्म के सच्चे स्थापन कर्ता के रूप में माने जाने लगे हैं । कहा जाता है कि महावीर से २५० वर्ष पूर्व उनका निर्वाण हुआ । ये सम्भवतः ईसा-पूर्व आठवी शताब्दी में रहे होंगे ।"
श्री विमलाचारण ले। ने भी 'इण्डालाजिकल स्टडीज' में, भाग ३, पृष्ठ २३६-३७ पर पाश्वनाथ के ऐतिहासिक पुरुष होने का समर्थन किया है।
डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हिन्दु सिविलाइजेशन' में लिखा है कि "पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष थे क्योंकि उनके अनुयायी महावीर और बुद्ध के जीवनकाल में मौजूद थे, यहाँ तक कि महावीर के माता-पिता स्वयं पाश्व' के उपासक और श्रमणों के अनुयायी थे।"
डॉ. ए. एम. घाटे ने 'हिस्ट्री एण्ड कल्चर आव इण्डियन पीपल' खड २ जैनिज्म' शीर्षक के अर्न्तगत पृष्ठ ४१२ पर लिखा है, "पा का ऐतिहासिकरब जैन आगम ग्रन्थों से सिद्ध है।"
श्री दिनकर जी का 'संस्कृति के चार अध्याय' में कथन है-"तेइसवे तीर्थ कर पार्श्वनाथ थे, जो ऐतिहासिक पुरुष हैं और जिनका समय महावीर और बुद्ध दोनों से २५० वर्ष पूव" पड़ता है ।”
श्रीपार्श्व की ऐतिहासिकता प्रतिपादित करने में जितनी जैन ग्रन्थों में अंकित सामग्री सहायक होती है उतने ही अधिक उद्धरण बौद्ध साहित्य से भी प्राप्त होते हैं
सर्वप्रथम हम देखते हैं कि भगवान बुद्ध उपन। बौद्ध धर्म स्थापित करने से पूर्व श्रीपार्श्व के चार्तुयाम धर्म में ही दीक्षित हुए थे। उन्हों ने मज्झिमनिकाय के 'महासिंह1. जैन धर्म का मौलिक इतिहास- आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज पृ० २८१-२८२ 2. हिंदू सभ्यता, डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी, श्री वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा अनुवादित,
विल्ली, (वि० संस्करण) १९५८, पृ० २१७-२२० । 3. संस्कृति के चार अध्याय, रामाधारी सिंह दिनकर, पटना १९६२( तृ. संस्करण), पृ. १३० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org