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गिक मार्ग का आविष्कार किया उसमें इस चातुर्याम का समावेश किया गया है 11 इससे यह विदित होता है कि बुद्ध ने पार्श्वनाथ के चार यामों को पूर्ण रूप से स्वीकार कर
लिया था ।
प्रज्ञा यक्षु प्रकाण्ड पण्डित श्रीसुखलाल संघवी का कथन है कि श्री धर्मानन्द कोसम्बी का उद्देश्य ही 'पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म' में यह बतलाना रहा कि बुद्ध ने पार्श्व के चातुर्याम धर्म की परम्परा का विकास किस किस रूप में किया था 12
बुद्ध का पंचशील चातुर्याम का ही अपने साँचे में ढाला हुआ रूप है । सुखलालजी ने लिखा है - "स्वयं बुद्ध अपने बुद्धख के पहले की तपश्चर्या और चर्या का जो वर्णन करते हैं, उसके साथ तत्कालीन निग्रन्थि आचार का हम जब मिलान करते हैं, और कपिलवस्तु के निर्ग्रन्थ श्रावक बप्पशाक्य का दृष्टान्त सामने रखते हैं तथा बौद्ध पिटकों में पाये जाने वाले खास आचार और तत्त्वज्ञान सम्बन्धी कुछ पारिभाषिक शब्द, जो केवल नियन्थि प्रवचन में ही पाये जाते हैं—इन सब पर विचार करते हैं तो ऐसा मानने में कोई सन्देह नहीं रहता है कि बुद्ध ने पार्श्व की परम्परा का स्वीकार किया था । " 3
महावीर के माता-पिता पाश्र्वापत्यिक थे द्वीपालसा नामक चैत्य में ठहरे थे । संभवतः हो । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ प्रत्येक थे । महावीर ने स्वयं पार्श्वनाथ के धर्म में दीक्षा ली थी और केवलज्ञान उन्हों ने पार्श्व के चातुर्याम को पंचयाम के रूप में परिणित किया था ।
उत्तराध्ययन सूत्र के तेतीसवें अध्ययन में केशी श्रमण और महावीर के प्रधान शिष्य गौतम का संवाद आलिखित है । इस संवाद से यह ज्ञात होता है कि महावीर ने मनुष्य की बुद्धि के विकास को देखते हुए 'परिग्रह - विरमण' नामक महाव्रत के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य को स्पष्ट एक अलग महाव्रत के रूप में कहा है। इस तरह चार महाव्रत के स्थान पर पाँच महात्रतों को स्थापित किया है । इस संवाद से भी यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि महावीर
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। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् महावीर यह चैत्य पार्श्व की मूर्ति से अधिष्ठित रहा दिवस इस चैत्य में दर्शनार्थ जाया करते प्राप्त होने पर
पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, धर्मानन्द कोसम्बी, पृ, २८ ।
चार तीर्थकर, पं. सुखलाल संघवी, अहमदाबाद, १९५९, पृ० ५१
चार तीर्थंकर, पं० सुखलालजी, अहमदाबाद, १९५९, पृ. ३६-३८ ।
"समणस्य णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्ज सवणोवासगा यावि होस्था "
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आचारांग सूत्र २, भाव चूलिका ३, सूत्र ४०१ ।
तीर्थकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा, प्रेमसागर जैन, पू० १० ।
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