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पद्मसुन्दरसूरिविरचित सचैकाकिविहारी सन्नभूच्चारणलब्धिभाक् । अथान्यदा नभोगत्या पुष्करद्वीपमागमत् ॥५८॥ तत्र हेमगिरेः पावें धर्मध्यानावलम्बनः । प्रतिमायोगमाधाय तस्थौ स्वास्थ्यस्थिराशयः ॥५९।। यत्साम्यसुखसाम्राज्यं मुने रहसि जम्भते । तन्न नाकपते के शर्म तादृग् न चक्रिणः ॥६॥ अथ कुक्कुटसत्मिा पाप्मा तत्पापकारणात् । धूमप्रभाख्यं नरकं प्राप्तो नारकयातनाः ॥६१॥ तेन नानाविधाः सोढाः स्वायुःप्रान्ते ततश्च्युतः । अभूद् विषधरः सोऽपि तत्र हेमगिरौ गिरौ ॥६२।। प्रतिमास्थं मुनि वीक्ष्याऽदंदश्यत महोरगः । धर्मध्यानधरः सोऽपि मृत्वाऽभूदच्युते दिवि ।।६३॥ देवो जम्बूद्मावर्ते विमाने रामणीयके । द्वाविंशत्यब्धिमानायुरणिमादिविभूतिभाक् ॥६४॥ द्वाविंशतिसहस्त्राब्दैराहारोऽस्याभवत् ततः ।। श्वासस्य सम्भवस्तावन्मासैरेकादशप्रमैः ॥६५।।
(५८) (गुरु आज्ञा से) अकेला विहार करने वाला वह चारणलब्धि का धारक हुआ तथा एक दिन आकाशमार्ग से पुष्कर द्वीप में पहुँचा ॥ (५९) वहाँ स्वर्णगिरि के । धर्माचरण व ध्यान क्रिया में लीन होकर प्रतिमायोग को धारण 'करके स्वस्थ व स्थिर हृदय वाला होकर स्थित रहा ॥ (६०) जैमा साम्यसुख का साम्राज्य मुनि के लिए एकान्त में विकसित होता है वैसा ( कल्याणकृत ) सुख न तो स्वर्ग में देवराज इन्द्र को है और न हो चक्रवर्ती को है । (६१-६२) इसके पश्चात् कुक्कुटसत्मिा ( वह पापी कमठ ) अपने ही पाप के कारण से धूमप्रभा नामक नरक में पहुँचा। वहाँ उसने विभिन्न प्रकार की नारकोय यातनाओं को सहा । अपनी आयु की समाप्ति पर वहाँ से भ्रष्ट होकर वह हिमगिरि.पर्वत पर विषधर हुभा ॥ (६३-६४) प्रतिमास्थित (अर्थात् ध्यानयोग में लीन) मुनि को देखकर उस विषधर ने उन्हें इस लिया । धर्मध्यान में तल्लीन वह मुनि मर कर अच्यूत स्वर्ग में देवत्व को प्राप्त हुआ । वहीं जम्बूद्रुमावत नामक सुन्दर विमान में बाईस सागरोपम आयु वाला होकर अणिमादि सिद्धियों को भोगने लगा ॥ (६५) वहाँ वह बाईस हजार वर्षों के अंतर से भोजन करता था ग्यारह महीनों के अंतर से श्वास लेता था॥ .
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