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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
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स्वं परं च सकलं विविध्य तद् वस्तु वास्तवमनन्तधर्मकम् ।
स्वात्मवस्तुनि यदासजस्तरां
तत् तवास्ति समदर्शिता कुतः ! ॥ १०३ ॥
शर्म यच्च परनिघ्नमत्यज
स्तत् स्वनिघ्नमभिकाङ्क्षसे भृशम् ।
स्वां विहाय सकलां नृपश्रियं
तावकी विरतिरभुता विभो ! ॥ १०४ ॥
भेजिरे किल पुरा सुरासुरा
स्त्वं तथैव भुवनेश साम्प्रतम् ।
काममेव चकमे व्रतश्रियं
तत् तपोभ्युपगमस्तवाऽद्भुतः ॥ १०५ ॥
मादृशैः सुचरितं भवादृशां
विश्वविश्वप ! न चास्ति गोचरम् । तत् खमेव वचसामगोचर
स्त्वां शरण्यशरणं श्रिया बयम् ॥ १०६॥
(१०३) स्व और पर सकल वस्तु वास्तव में अनन्त धर्मों वाली होती है ऐसा विवेक से निश्चय करने के बाद भी अपनी आत्मारूप वस्तु में आप जो विशेषतः आसक हो गये हैं, तो फिर आपकी समदर्शिता कहाँ ? (१०४) अपनी सम्पूर्ण राज्यलक्ष्मी को छोड़कर पराीन सुख को आपने छोड़ दिया और स्वाधीन सुख की आप उत्कट इच्छा करते हो । हे प्रभो !, आपकी यह विरक्ति बड़ी ही अद्भुत है । (१०५) हे भुवनेश !, देवताओं और असुरों ने जो पहले आपकी सेवा की थी, उसी प्रकार अब भी सेवा करते हैं, और आप
श्री की अत्यन्त इच्छा करते हैं । इसलिए आपके तप का स्वीकार अद्भुत है । (१०६) सम्पूर्ण विश्व का पालन करने वाले प्रभो ! मुझ जैनों के द्वारा आप जैसों का सुन्दर चरित नहीं जाना जा सकता । आप वाणी से अगोचर हैं । शरणागत की रक्षा करने वाले आपके हम शरण में आये हैं ।
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