Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 239
________________ १२२ श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य Jain Education International सर्वसावद्ययोगानामुज्झनं चरणं विदुः । सत्येव दर्शने ज्ञानं चारित्रं स्यात् फलप्रदम् ॥१४९॥ दर्शनज्ञानविकलं चारित्र विफलं विदुः । त्रिषु द्वयेकविनाभावात् षोढा स्युर्दुर्नया: परे ॥ १५० ॥ दर्शनादित्रयं मोक्षहेतुः समुदितं हि तत् । महात्रतोऽनगारः स्यात् सागारोऽणुव्रती गृही ॥ १५१ ॥ आप्तो यथार्थवादी स्यादाप्ताभासास्ततः परे । आप्तोक्तिरागमा ज्ञेयः प्रमाणनयसाधनः ॥ १५२ ॥ विपर्यस्तस्तदाभास इति तत्त्वस्य निर्णयः । य एनां तत्त्वनिर्णीतं मत्वा याथात्म्यमात्मसात् ॥१५३॥ श्रद्धत्ते स तु भव्यात्मा परं ब्रह्माधिगच्छति । पुरुषं पुरुषार्थं च मार्ग तत्फलमाह सः ॥१५४॥ लोकनाडीं समस्तां च व्याचख्ये त्रिजगद्गुरुः । भवद् मृर्त भविष्यच्च द्रव्यपर्यायगोचरम् ॥ १५५ ॥ (१४९) सब प्रकार की दोषयुक्त प्रवृत्ति के त्याग को चारित्र कहते हैं । सम्यक् दर्शन हो तभी ज्ञान और चारित्र फलप्रद होते हैं । (१५० ) दर्शन और ज्ञान से रहित चारित्र विफल है- ऐसा बिद्वान लोग समझते हैं । इन तीनों में से एक या दो से रहित छः विकल्प होते है, जो दुर्नय हैं । (१५१) दर्शन आदि ये तीन मिलकर मोक्ष का एक ही उपाय बनता है । महाव्रतधारी अनगार है । अणुव्रतधारी श्रावक है । (१५२ ) जो यथार्थवादी है वह आप्त है, बाकी सब आप्त न होते हुए भी आन्त की भ्रान्ति करने बाले हैं। आप्तवचन ही आगम है, ऐसा समझना चाहिए । प्रमाण और नय आमम के साधन है, उपाय है । (१५३ - १५४) इस लक्षण से रहित जो वचन है वह आगमाभास | आगम में तत्त्व का जो निर्णय किया गया है उसको सचमुच तत्वनिर्णय मान कर जो यथायोग्य भावपूर्वक श्रद्धा रखता है वह भव्यात्मा है । वह (मुक्त होता अर्थात् ) परमब्रह्म को प्राप्त करता है । फिर उन्होंने ( अर्थात् पार्श्वनाथने) पुरुष, पुरुषार्थ, मार्म और मार्गफल कहा । (१५५) उपरति, तीनों जगत् के गुरु पाद ने समस्त लोकनाडी की व्याख्या की । भूत, भविष्य, वर्तमान (सब) द्रव्य के पर्याय (उनके शान (सभी) का) विषय था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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