________________
पश्नसुन्दरसूरिविरचित त्रयोदशास्य कर्मोशाः प्रक्षीणाश्चरमे क्षणे । द्वासप्ततिरुपान्त्येऽथ निर्लेपो निप्कलः शिवः ॥५८।। श्रावणे धवलाष्टम्यां त्रयस्त्रिंशत् तपोधनैः । पूर्वाहणे तु विशाखायां श्रीपाश्वर्यो निर्ववौतराम् ॥५६।। सम्भूयाथ सवासवाः सुरगणाः श्रीपार्श्वदेहं शुचि ज्वालाजालपरिष्कृते हुतभुजि प्रक्षिप्य गन्धोद्धुरैः । गोशीर्षेमसमेधिते परिलसत्काश्मीरजैश्चन्दनैरभ्याक्षतपुष्पमाल्यनिवहैस्ते भस्मसाच्चक्रिरे ।।६०॥ क्षीरोदे च निचिक्षिपुर्जिनपतेर्भूतिं पवित्राङ्गजां बालादित्यसपत्नरत्नविलसत्काटीरकोटीधरैः । नत्वा तां निजमूर्द्धभिः सुरगणाः सेन्द्राः समस्तास्ततो । जग्मुः स्वालयमेव ते कृतमहानिर्वाणपूजोद्धवाः ॥६१॥ शकस्तूपरिमां च दक्षिणह, जग्राह चेशानपा। __ वामां तां चमराऽग्रियां द्रुतमधःस्थां वामजातां बलिः । अङ्गोपाङ्गगतास्थिवृन्दमपरे शेषाः सुराः सादरं
कृत्वा स्तूपविधानमत्र सकला नन्दीश्वरादौ ययुः ॥६२॥ (५८) उनके (पार्श्व के) तेरह कर्भ के अंश चरम (अन्तिम) क्षण में नष्ट हो गये और उपान्त्य क्षण में बहत्तर (७२) कर्म के अंश भी नष्ट हुए । तदनन्तर वे निर्लेप, निष्कल व शिव हो गए । (५९) श्रावणमास में शुक्लाष्टमी के दिन तेतीस तपोधन मनियों के साथ विशाखानक्षत्र में, पूर्वान्ह में श्रीपाल ने निर्वाणपद प्राप्त किया । (६०) इन्द्रसद्धित सभी देवताओं ने एकत्रित होकर श्रीपार्श्व के पवित्र देह को कान्तिमान सुगन्धित केसर एवं चन्दन से तथा अक्षत, पुष्प और मालाओं से सजा कर, ज्वालाओं से परिष्कृत और गोशीर्षचग्दन के इन्धन से प्रज्ज्वलित अग्नि में रख कर भस्मीभूत कर दिया । (६१) उन्होंने जिनपति श्रीपार्श्व के पवित्र अंग से उत्पन्न भस्म को क्षीर समुद्र में विसर्जित किया । प्रातःकालीन सूर्य के समान विलसित मणियों से जटित मुकट की कोटि को धारण करने वाले अपने अपने मस्तकों से नमस्कार कर (झुककर) इन्द्रसहित वे सभी देवता वहाँ से अपने स्थान को महानिर्वाणपूजा का उत्सव कर चले गये ।(६२) इन्द्र ने ऊपर की ठुड्डी को ग्रहण किया और दाहिनी टुडूडी को ईशानेन्द्र ने और बायी ठुड्डीको चमरेन्द्र ने तथा बलि ने अघोस्थित वाम हनु के अग्रभाग को लिया । अन्य देवताओंने अंग व उपांगों के अस्थिसमूह को ग्रहण किया । स्तूपविधान करके सब नन्दीश्वर आदि स्थानों को प्रस्थान कर गये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org