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श्री पार्श्वनाथचरित महाकाव्य
एवं व्यशीतिदिवसैरूनान् सप्ततिवत्सरान् । विहृत्य भगवान् पार्श्वः प्रान्ते सम्मेतमासदत् ||५० || आयुर्वर्षशतं पूर्ण समापय्य महामनाः । संलिख्य मासभक्तेन प्रलम्बितभुजद्वयः ॥ ५१ ॥ स्वयं योगनिरोधार्थं समुद्घात तदाऽकरोत् । पूर्व दण्डं कपाटं च मन्थानं लोकपूरणम् ||५२ ॥ चतुर्भिः समयैर्विश्वमापूर्य व्यानशे विभुः । सञ्जहारान्तरं मन्थं कपार्ट दण्डमुत्क्रमात् ॥५३॥ प्रदेशानुपसहृत्याऽघातिस्थित्यंश संहतीः ।
असङ्ख्येया निराकृत्यानुभागस्य च कर्मणाम् ||५४|| भागाननन्तान् सोऽप्यन्तर्मुहूर्ताद्योगरुन्धनम् । कुर्वाणो वाङ्मनोयोगौ सूक्ष्मीकृत्याश्रयात् तनोः ||५५| ततश्च काययोगं च सूक्ष्मीकृत्याविनश्वरम् । दध्यौ सूक्ष्मक्रियाध्यानं रुद्धयोगो गतास्रवः ||५६ || अयोगी स समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमनश्वरम् । पञ्चह्नस्वाक्षरैर्ध्यायन् शैलेशीकरणं गतः ॥५७॥
मासभक्त
(५०) इस प्रकार सत्तर (७०) वर्षो में तरासी (८३) दिन कम विहार करके भगवान पार्श्व अन्तकाल में सम्मेतशिखर पर्वत पर गये । (५१--५७) उदारमनवाले, प्रलम्बित महाभुजावाले पार्श्वप्रभु ने सो वर्ष की पूर्ण आयु समाप्त कर की संलेखना करके स्वयं प्रवृत्ति को रोकने के लिए समुद्घात किया । सर्वप्रथम दण्ड की तरह ऊर्ध्व और अधोदिशाओं में, फिर कपाट की तरह चारों दिशाओं में, फिर मन्था की तरह अन्तरालों में आत्मप्रदेशों को फैलाकर लोक को उन्होंने भर दिया । इस तरह चार क्षणों में विश्व का आत्मप्रदेशों से भरकर प्रभु व्यापक हो गये । बाद में उल्टे क्रम से मन्था, कपाट और दण्ड की तरह उन्होंने आत्मप्रदशों का संकोच किया । आत्मप्रदेशों का संकोच कर अघाती कर्मा के असंख्येय भाग स्थितिबन्ध को उन्होंने नष्ट कर दिया तथा उन कर्मों के अनुभागबन्ध के अनन्त भागों को भी नष्ट कर दिया । तदनन्तर अन्त मुहूर्त में शरीर की सूक्ष्मक्रिया का आश्रय कर उन्होंने वाणी और मन की प्रवृत्ति का निरोध किया । बाद में शरीर की क्रिया को सूक्ष्म कर प्रवृत्तिनिरोधवाला और आस्रवरहित वह अविनश्वर सूक्ष्मक्रिया ध्यानने लगा कर । उसके पश्चात् प्रष्टत्तिरहित वह पाँच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण में जितनाकाल लगता है उतने काल तक अविनश्वर समुच्छिन्नक्रिया ध्यान करके शैलेशीकरण को प्राप्त हुआ ।
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