Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 216
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित यन्निरस्तजगदुग्रसंज्वरं विश्वविश्वजनतेकपावनम् । गाङ्गवारिसवनं पुनातु वा त्वद्वतग्रहणमय नः प्रभो! ॥९८॥ राण्यसम्पदमिमां चलाचला माकलय्य भगवान् भवानिति । आजवंजवजक छहानये प्रत्यपद्यत विशुद्धसंयमम् ॥९९।। स्नेहरागनिग विभिध यत् त्वं मदान्धगजवद् वनं गतः । सावरोधजनकादिबन्धुता नावरोधनकरी तवाभवत् ॥१०॥ जीवितं किल शतहदाचलं स्वप्नभोग इव भोगसङ्गमः । सम्पदो जलतरङ्गभङ्गुरा इत्यवेत्य शिवमार्गमासदः ॥१.१॥ यद्विहाय नृपतारमामिमा । रज्यते स्म भगवास्तपःश्रिया । काक्षसे यदिह मुक्तिवल्लमा वीतरागपदवी कुतस्त्वयि ! ॥१०२।। (१८) हे प्रभो !, आपका यह व्रतग्रहण आज हमें गंगाजल के स्नान के समान पवित्र करे । यह व्रतग्रहण संसार के सभी उत्ताप को दूर करने वाला तथा सम्पूर्ण विश्व को पवित्र करने वाला है। (९९) राज्य की यह सम्पत्ति चलाचल है ऐसा सोचकर मापने शीघ्र ही कष्ट की हानि के लिए विशुद्ध संयम को स्वीकार किया है। (१००) मदान्ध साथी की तरह भाप स्नेह और राग की मंजीर को तोड़कर वन में गए । पिता आदि की भवरोधकारी सगाई (संबंध) आपके लिये अवरोधक न हुई । (१.१) आपने जीवन को निनली के समान चंचल, सांसारिक भोगों स्वप्नभोग के समान (मिथ्या), सम्पत्ति को जलतरंगों के समान क्षणभंगुर समझकर आप ने मोक्ष को अपनाया है। (१०२) इस राज्यलक्ष्मी बोरकर आपने भो तपःभी से अनुगग किया तथा यहाँ मुक्तिप्रिया की जो इच्छा की. तो फिर भापमें बीतरागता कैसे मानी पाये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254