Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 227
________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य विशुद्धिभिर्वर्धमानः क्रमात् क्षीणकषायताम् । प्राप्याऽधुनाद्रजोऽशेषं स्नातकत्वं प्रपन्नवान् ॥६५॥ समस्तज्ञानदृग्वीर्यादिविघ्नान् घातिसंज्ञकान् । शुक्लांशेन द्वितीयेन चिच्छेद समयेऽन्तिमे ॥६६॥ घनघातिविघातेन विश्वदृश्वा जगन्प्रभुः । श्रीपार्श्वः केवलं लेभे जगदुद्योतकारणम् ।।६७।। दीक्षावने त्वशोकाधः पूर्वाह्न राधया युते । चैत्रकृष्णचतुर्थ्यहि पाश्वाऽभूत् केवली तदा ॥६८।। अनन्तज्ञानदृग्वीर्यचारित्राण्यथ दर्शनम् । दानलाभौ च भोगोपभोगावानन्त्यमागताः ॥६९॥ नवकेवललब्धीस्तु भेजे स भगवांस्तदा । असुरस्तूपशान्तोऽभूत् ततः सम्यक्त्वमाददे ॥७०।। अथ जिनपतिरुद्यत्केवलज्ञानभास्वद् द्युतिभिरखिलविश्वं द्योतयामास विष्वक । असुरसुरनरेन्द्राः प्राणम भक्तिनम्राः तमथ वियति चासीद् दुन्दुभेमन्द्रनादः ।।७१।। (६५) इस प्रकार उक्त विशुद्धियों से बढ़ते हुए क्रमशः क्षीण कषायता को प्राप्त कर नि:शेष (मोहनीय) फर्मरज को झाड़ कर वे स्नातकत्व को प्राप्त हुए । (६६) समस्त ज्ञानदर्शनवीर्य आदि के प्रतिबन्धक घाति नामक विघ्नों को उन्होंने द्वितीय शुक्लध्यान (ध्यान प्रकार) से अन्तिम समय में खण्डित कर दिया । (६७) विश्वद्रष्टा श्रीपार्श्व ने गाढ़ घातिकम के विधात से संसार को प्रकाशित करने वाले कैवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। (६८) तब दीक्षावन में अशोकवृक्ष के नीचे, पूर्वाण्ड में, अनुराधानक्षत्रयुक्त चैत्रकृष्णा चतुर्थी के दिन पाव प्रभु केवलज्ञानी हो गये । (६९) अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य व अनन्तचारित्र (प्रकट हुए) । लाभ, भोग, उपभोग सभी अनन्त हो गये । (७०) यह होते ही नूतन केवलज्ञानरूप लब्धि उन प्रभु को प्राप्त हुई, असुर उपशान्त हुआ और (परिणामस्वरूप) सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। (७१) इसके पश्चात् जिनदेव प्रभु ने उदित हो रही केवलज्ञान की देदीप्यमान दीप्ति से सम्र्पूण विश्व को चारों ओर से प्रकाशित कर दिया । असुर, देव तथा मानवों ने भक्तियुक्त होकर उन्हे प्रणाम किया और आकाश में मन्द्रगम्भीर दुन्दुभिनाद होने लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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