Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 230
________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित दिवि दुन्दुभयः सुरपाणविकै निहताः सुतरां घन कोणगणैः । न्यगदन्निव ते ध्वनिभिर्भविकान् श्रयत्नमिमं स्वहिताय जनाः ॥८२॥ यत्र विभुनिजपादपदानि न्यस्यति स स्म सुरासुरसङ्घा : । हेममयाम्बुरुहाणि नितान्त | तत्र नवानि रुचा रचयन्ति ।।८३।। देवं प्राचीमुखं तं समसृतिमहीसंस्थितं सभ्यलोकाः प्रादक्षिण्येन तस्थुर्मुनिसुरललनार्यास्त्रिकं च क्रमेण । ज्योतिर्वन्येशदेवीभवनजरमणीभावनव्यन्तरौघा ___ ज्योतिष्काः स्वर्गनाथाः समनुजवनिता द्वादश स्युः समव्याः ॥८४॥ जिनपतिवदनाब्जान्निर्जगामाऽथ दिव्य ध्वनिरचलगुहान्तः प्रश्रुतिध्वानमन्द्रः । प्रसूमरतर एकोऽनेकतां प्राप सोऽपि स्फुटमिव तरुभेदात् पात्रभेदात् जलौघः ।।८५।। (८२) स्वर्ग में देवता रूप पाणविकों द्वारा घनकोणों से बजाई हुई दुन्दुभियाँ अतीव ध्वनि कर रही थीं । अपनी ध्वनि से भव्यजनों को मानों यह कह रही थी कि हे लोगों ! अपने कल्याण के लिए इन पार्श्वनाथ की शरण ले लो । (८३) जहाँ प्रभु पानाथ अपने चरणकमल रखते थे वहाँ सुर और असुर समुदाय कान्ति से नये नये सुवर्णमय कमलों को बना दिया करते थे । (८४) पूर्व दिशा की ओर मुख किये हुए समवसरण भूमि में स्थित प्रभु की क्रम से मुनि, देवांगनाये और आर्य लोग प्रदक्षिणा करके खड़े रहे । ज्योतिष्कदेवयाँ, व्यन्तरदेक्यिा, भवनपति देवों की देवियां, भबनपति देव, व्यन्तरदेव, ज्योतिष्कदेव और मानुषी स्त्रियों के साथ बारह प्रकार के वैमानिकदेव सभा में उपस्थित हए । (८५) पर्वतीय गुफा के अन्तःस्थल से निकली हुई ध्वनि के समान धीरगंभीर दिव्य ध्वनि जिनदेव के मुखकमल से निकली । वह फैली हुई एक ध्वनि अ.कता को प्राप्त हुई जिस प्रकार जल का समूह स्पष्ट रीति से तरुभेद एवं पात्रभेद से अनेकता (या विशेषता) का प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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