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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
शक्राद्याः परिचेरुस्तं भगवन्तं महेज्यया । कौसुमैः पटलैव्योम प्रोर्णुवानास्ततालिभिः ॥७७॥
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विष्वक् समस्तमास्थानं वृष्टिः सौमनसी तता । विसृष्टा सुखावहैर्भाग्य भृङ्गकुलाकुला ॥७८॥
यस्य पुरस्ताच्चलदलहस्तैनृत्यमकार्षीदिव किमशोकः । भृङ्गनिनादैः कृतकलगीतः
पृथुतरशाखाभुजवलनैः स्वैः ॥७९॥
त्रैलोक्यस्य श्रियमिव जित्वाऽशेषां लोक्येशत्वमथ जिनस्याऽऽचख्ये ।
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स्वच्छं छत्रं त्रितयमदस्तद्युक्तं
श्रीमान् पार्श्वस्त्रिभुवनचूडारत्नम् ॥८०॥
चाम लिरिन्दुपादगौरा
दक्षयक्षशस्तहस्तधूता ।
पार्श्वदेवपार्श्वयोः पतन्ती
स्वर्नदीव निर्झरैर्विरेजे ॥ ८१ ॥
आकाश को आच्छादित करते
( ७८ ) सम्पूर्ण बैठक के
(७७) जिनमें भ्रमर व्याप्त हैं ऐसे पुष्प के समूहों से हुए इन्द्रादि देव भगवान् की महती पूजा से सेवा करते थे । चारों ओर पुष्पों की वृष्टि फैल गई । देवसमुदायों के द्वारा छोड़ी गई वह पुष्पवष्टि चञ्चल भ्रमरों के समुदाय को आकुल करने वाली थी । (७९) लम्बी शाखाओं रूप अपनी भुजाओं की विविध भङ्गीओं को धारण कर, भ्रमरों के गुंजन रूप मधुर गीत गाते हुए अशोकवृक्ष ने अपने चंचल पत्रों रूप हस्तों से उनके (पार्श्व के ) सम्मुख मानो नृत्य किया । (८०) उदित शुभ्र द्युतित्राला छत्रत्रय मानों सूचित करता है कि जिनेश्वर ने तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त किया है और ऐसे श्रीसम्पन्न पार्श्व त्रिभुवन की चूड़ामणि बन गये हैं । ( ८१ ) चन्द्र किरणों के समान गौर चामरों की पंक्ति जो दक्ष यक्षों के प्रशस्त हाथों से पार्श्वप्रभु के दोनों ओर हिलाई जा रही थी, वह पार्श्वदेव के दोनों ओर झरनों से युक्त गिरती हुई गंगानदी के समान शोभित रही थी ।
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