Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 218
________________ १०१ पञ्चसुन्दरसूरिविरचित स्तुत्वैवं त्रिदशाधिपास्त्रिजगतामीशं बतश्रीभृतं जग्मुः स्वालयमेव बन्धुजनता प्रापाथ शोकार्दिता । निःसङ्गो भगवान् बनेषु विहरन्नास्ते मनःपर्याव - श्रीसंश्लेषससम्मदः स यमिना 'धुर्यः परं निर्वृतः ॥१०७॥ इति श्रीमत्परापरपरमेष्ठिपदारविन्दमकरन्दसुन्दररसास्वादसम्प्रीणितभव्यभव्ये पं० श्रीमेरुविनेयपं० श्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीपार्श्व नाथमहाकाव्ये श्रीपार्श्वनिष्क्रमणं नाम पञ्चमः सर्गः ।। १०७) इस प्रकार देवतालोग व्रतभी को धारण करने वाले जगत्स्वामी की स्तुति करके अपने स्थान को चले गये। बन्धुजन शोक से पीड़ित होकर अपने घर गये । भगवान् जिनदेव वनों में निःसङ्ग विहार करते हुए मनःपर्यवज्ञानश्री के आश्लेष से खुश हुए । संयमीजनों में अग्रगण्य ऐसे वे (पाच) परम शान्ति में स्थिति रहे । इति श्रीमान्परमपरमेष्ठी के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रस के स्वाद से भव्यजनों को प्रसन्न करने वाले, पं. श्रीपद्ममेरु के शिष्य पं. श्री पदमसुन्दर कवि द्वारा रचित श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्य में "श्रीपाश्र्वनिष्क्रमण" नामक पाँचवाँ सर्ग समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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