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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
विष्णुर्जिष्णुरचिन्त्यात्माऽचिन्त्यशक्तिर्जिनेश्वरः । सर्वज्ञः सर्वदृक् सर्वलोकपः सर्वनायकः ||२५|| सार्वः सर्वेश्वरः शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् विभुः । निर्मलो निष्कलः शान्तो निष्कलको निरञ्जनः ॥२६॥ धर्माध्यक्षो धर्मशास्ता धर्मतीर्थकरा जिनः । स्वमन् वीतरागस्त्वं ध्येयस्त्वं ध्यानगोचरः ||२७|| आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् त्वां विदुर्बुधाः । त्रिकालवेदिनं सूक्ष्मं पुराणपुरुषं पुरुम् ॥२८॥ स्याद्वादवादी त्वं वाग्मी भव्यलोकैकसारथिः । देवाधिदेवो देवेन्द्रवन्द्यो देवः सनातनः ||२९|| जिनाय नामरूपाय नमस्ते स्थापनात्मने । नमस्ते द्रव्यरूपाय भावरूपाय ते नमः ॥३०॥ एकोऽनेको महान् सूक्ष्मो लघुर्गुरुरुदीरितः । व्यक्तोऽव्यक्तस्त्वमेवासि ब्रह्म नित्यं परापरः ॥ ३१ ॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथं जगन्नाथजिनं नृपः । त्रिः परीत्य नमस्कृत्य समागाद् निजपत्तनम् ॥ ३२॥
अचिन्त्य शक्ति हो पालक हो और सभी हो, शम्भु हो, ब्रह्मा
(२५) आप ही विष्णु हो, जिष्णु हो, अचिन्त्य आत्मा हो, भोर जिनेश्वर हो । आप सर्वज्ञ हो, सर्वदर्शी हो, सभी लोकों के प्राणियों के नायक हो । (२६) हे प्रभो ! आप ही सार्व हो, सर्वेश्वर हो और विभु हो । आप निर्मल, निष्कलंक ( = निष्कल), शांत और निरंजन हो । (२७) आप ही धर्माध्यक्ष हो, धर्मशास्ता हो, धर्मतीर्थ के कर्ता हो, जिन हो, अर्हत हो, वीतराग हो, ध्येय हो और ध्यान का आलम्बन हो । (२८) हे प्रभो ! विद्वान लोग आपको अन्धकार से परे सूर्यस्वरूप, निकालश, पुराणपुरुष, सूक्ष्मरूप और पुरू जानते हैं । (२९) हे भगवान् ! आप स्यादुवाद का कथन करने वाले हो, प्रशस्तवक्ता हो और भव्य जीवों के एकमात्र सारथि हो । आप ही देवाधिदेव, देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय एवं सनातन देव हो । ( ३०) नामरूप जिन और स्थापनारूप जिन, आपको नमस्कार है । द्रव्यरूप जिन और भावरूप जिन, आपको नमस्कार है || (३१) हे भगवन् ! आप एक होते हुए भी अनेक हैं, महान होते हुए भी सूक्ष्म हैं । आपको लघु और गुरु कहा गया है । आप व्यक्त भी हैं और अव्यक्त भी । आप नित्य परापर ब्रह्म हैं ॥ ( ३२ ) इस प्रकार वह राजा जगत् के नाथ जिनदेव की स्तुति करके, तीन बार परिक्रमा के साथ नमस्कार करके, अपने नगर में आ गये !!
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