Book Title: Parshvanatha Charita Mahakavya
Author(s): Padmasundar, Kshama Munshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 194
________________ पद्मसुन्दर सूरिविरचित यमनस्य मटास्तावत् कान्दिशीका हतौजसः । बभूवुस्तपनोद्योते खद्योतद्योतनं कुतः १ ॥ १८० ॥ श्रीमत्पार्श्व प्रतापोप्रतपनोद्योतविद्रुताः । यमनाद्यास्तमांसीव पायांचक्रिरे द्रुतम् ॥ १८१ ॥ प्रसेनजिन्नृपार्क ये संनीयाऽस्थुटाम्बुदाः । व्यलीयन्त क्षणात् पार्श्वप्रसाद पवनेरिताः ॥१८२॥ प्रसेनजिच्च भगवत् प्रतापस्फूर्तिमभुताम् । अवतीर्य गजान्मत्वा नत्वा पापाम्बुजम् ॥ १८३॥ पाद्यमर्ध च सम्पाद्य मणिपीठे निवेश्य तम् । भारतीभिर्गभाराभिः स स्तोतुमुपचक्रमे ॥ १८४ ॥ यन्नामाद्भुतदिव्य मन्त्रमहिमप्राग्भार नर्भासतो विघ्नव्यूहमहान्धकारपटली नश्यत्यवश्यं नृणाम् । श्रीमत्पार्श्ववजिनेश्वरः स्वयमसौ जागर्त्ति विश्वेश्वर स्तस्मिन् सन्निहिते क्व वैरियमरः क्वेतिव्रजोपप्लवः ।। १८५ ।। त्वन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि भगवन् ! दूरं व्रजन्त्यापदो बाधन्ते न च दुर्गदुर्गतिभवा बाधाः क्वचिज्जन्मिनाम् । संसारव्यसनार्त्तिराशु विजयं यातीति नात्यद्भुतं सौपर्णेयपुरः सरीसृपगण: किं वा समुत्सर्पति ? ।।१८६।। (१८०) यमन के नष्टतेजवाले सैनिक कौन सी दिशा में भागना यह भी नहीं सोच Bh (और तितर-बितर हो गये) । सूर्य के उदय होने पर जुगनू का प्रकाश कैसे संभव है १ । (१८१) शोभासम्पन्न पार्श्वकुमार के पराक्रमरूप उम्र सूर्य के प्रकाश से घबराये हुए यमन के सैनिक अन्धकार की भाँति शीघ्र ही भाग गये । (१८२) जो बादलरूपी योद्धा प्रसेनजित् राज्जारूप सूर्य को आच्छादित कर रहे थे वे क्षण भर में पार्श्वकुमार के अनुग्रहरूप वायु से तितर-बितर होकर नष्ट हो गये । (१८३ - १८४) भगवान् पार्श्व के प्रताप के पराक्रम को अद्भुत मानकर प्रसेनजित् हाथी से उतरा, पार्श्व के चरणकमल को नमस्कार किया, चरणों की पूजा के लिये अध्यं संपादन किया, मणिमय आसन पर उनको बिठाया और गंभीर वाणी से स्तुति करने लगा । (१८५) जिसके अद्भुत, दिव्य मन्त्रमहिमा के प्रभाव से सारे विघ्नसमूह का अन्धकार निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है ऐसे श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वर स्त्रयं विश्वेश्वर यहाँ विद्यमान हैं। उनके समीप रहने पर दुष्ट शत्रु का आक्रमण कहाँ से हो सकता है ? (९८६) हे भगवन् !, आपके नाम लेने मात्र से ही विपत्तियाँ दूर भाग जाती हैं । कठोर बाधाएँ भी जन्मधारियों को पीड़ित नहीं कर सकतीं । सांसारिक कष्ट शीघ्र ही विलय को जाते हैं । इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सम्मुख सर्पसमुदाय आ १ । प्रास सकता क्या गरुड़ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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