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पद्मसुन्दरसूरिविरचित निर्गच्छतो बहिरिमानथ विस्मितोऽसौ
पप्रच्छ कञ्चिदपि सस्मितमाह स स्म । पञ्चाग्निसाधनपरं कमठं तपस्वि
वयं व्रजत्यहह ! पौरजनोऽद्य नन्तुम् ॥४६॥ इत्थं निशम्य भगवान् सवयोभिरुच्चै
- गोष्ठी सविस्मितसुभाषितलब्धवर्णैः । कुर्वन् वनेषु विचार विहारचारी
श्यामा यमानतरुराजिषु राजमानः ॥४७॥ क्रीडन् वनेष्वथ तदाश्रममेष वीक्षा
चक्रे तपस्विनिवरैः कुशदारुहस्तैः । आकीर्णमेकमथ तापसवर्गमुख्यं
पञ्चाग्निसाधनपरं च निरीक्ष्य तस्यौ ।।४८॥ यावच्च कौतुकवशाद् भगवाननत्वा
तस्थावनादरपरः पुरतस्तमीशः । दृष्ट्वा तमप्रणतमेष चुकोप बाद
नातद्विदां तपसि चापि भवेत् तितिक्षा ॥४९॥ चित्ते व्यचिन्तयदथो स तपस्विवर्यः
पूज्योऽहमत्र यदि वा तपसाऽस्मि वृद्धः । पाश्र्वस्तु मामदगणय्य पुरः स्थिती यत्
तत्प्राज्यराज्यपदवीमदविभ्रमत्वम् ॥५०॥ (४६) बाहर निकलते हुए इन लोगों को देखकर विस्मयान्वित होकर उसने (पार्श्व ने) किसी से पूछा तब उसने हँसकर कहा-अरे आज सारे नगरनिवासी पञ्चाग्नि साधना में तत्पर कमठ तपस्विश्रेष्ठ को प्रणाम करने के लिए जा रहे हैं ।
(४७) ऐसा सुनकर अपनी उमरवाले, आश्चर्यचकित मधुर वाणीवाले और कीर्तिप्राप्त मित्रों के साथ जोरशोर से चर्चा करते करते श्याम दिखाई देती वृक्षपंक्तियों में शोभायमान भगवान् वनों में पैदल निकल पडे। (४८) वनों में खेलते खेलते उन्होंने कुश और काष्ठ हाथ में लिए हुए तपस्वियों से भरपूर उप आश्रम को देखा और तापसों के एक मुखिया को पंचाग्नि साधना में तल्लीन देखकर वे खड़े रह गये । (४९) यकायक भगवान पार्श्व कौतुहलवश बिना प्रणाम किये अनादर के साथ उसके सामने खड़े हो गये । उसे बिना नमस्कार .िये हए देखकर महामुनि कमठ को बहुत क्रोध आया। अज्ञानियों की तपस्या में सहनशीलता नहीं होती है । (५०) अपने मन में उस तपस्विश्रेष्ठ ने सोचा कि मैं यहाँ इस आश्रम में पूजनीय हूँ तथा मैं तपोवृद्ध हूँ। पाश्व मेरी अवगणना करके मेरे सामने खड़ा हुआ है अतः यह तो राज्यपदवी के अभिमान से जन्य उसका अविवेक है।
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